वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jul 27, 2011

दुधवा में तीन हाथियों की सरकारी हत्या?

दधवा में हाथियों की हत्या ?
अनियोजित विकास की बलिवेदी पर जंगल के जानवर और इंसान-

नेपाल सीमा से लगे उत्तर प्रदेश के जनपद खीरी में स्थित विश्व विख्यात दुधवा नेशनल पार्क में अभी हाल ही में एक साथ तीन हाथियों की बिजली की हाई टेंशन तारों के कारण दर्दनाक मौत हो गयी। इस घटना में सबसे हृदयविदारक मौत उस गर्भवती हथिनी को मिली जिसकी कोख से अपरिपक्व बच्चा बिजली के तेज़ झटके लगने के कारण मां के पेट से बाहर आ गया। हाथियों के झुंड का गुस्सा रास्ते के जंगल में लगे हाईटेंशन पोल पर तब उतरा जब वे गांव में अपने भोजन की तालाश में गए थे। हाथी इन तारों की चपेट में आ गये और यह दर्दनाक हादसा घटित हो गया। इस घटना को हादसा कहें या फिर हत्या ? 

सच्चाई तो यह है कि इस घटना को महज एक हादसा मानकर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्या कारण है कि हाथी जैसे विशालकाय जानवर सहित जंगल में पाये जाने वाले तमाम तरह के दुर्लभ वन्य जन्तु जो कि देश की अमूल्य धरोहर हैं, इसी तरह से विभिन्न हादसों का शिकार होकर मारे जा रहे हैं। अभी पिछले साल पश्चिम बंगाल के जलपाई गुड़ी जिले में रेल की चपेट में आकर एक साथ सात हाथियों की मौत हो गयी थी। उनके शरीर के परखच्चे रेल की पटरियों पर इस तरह से छितराकर बिखर गये थे, मानो वे गीदड़ या गधे जैसे किसी छोटे जानवर के शरीर हों। इसी तरह से उत्तराखण्ड स्थित राजाजी नेशनल पार्क में देहरादून जाने के लिये बिछाई गयी रेल लाईन पर आये दिन हाथियों की मौत होती रहती है। यह सब घटनाऐं तब घटित हो रही हैं जब देश के ऐसे तमाम संरक्षित वनक्षेत्रों में विभिन्न टाईगर और हाथी प्रोजेक्टों के तहत इन्हें बचाने के नाम पर हर वर्ष करोड़ों अरबों रुपया पानी की तरह बहाया जाता है। इसलिये इन वन्यजीवों की हादसों में होने वाली हर मौत एक बड़ा सवालिया निशान छोड़ती है। इन हत्याओं को महज हादसा कहकर पर्दे के पीछे छुपाया नहीं जा सकता।

उत्तर प्रदेश के दुधवा नेशनल पार्क को ही लें तो 1978 में इसकी स्थापना के समय से ही कहा जा रहा है कि पार्क के अन्दर और इसके इर्दगिर्द बसे थारू आदिवासी गांवों के लोगों को अगर खदेड़ दिया जाये तभी यहां के बाघ और हाथी जैसे जंगली जानवरों को बचाया जा सकता है। हाथियों और बाघों के संरक्षण के लिये बनाये गये तमाम प्रोजेक्टों में इस बात पर खास ज़ोर दिया जाता है कि संबंधित वनक्षेत्रों से वहां बसे लोगों को हटा दिया जाये, तभी वन्य प्राणीयों को बचाया जा सकेगा।  क्या ऐसा कर देने से इस बात की गारंटी ली जा सकती है कि जंगलों के अंधाधुंध कटान के कारण ये जीव बिजली की तारों और जंगल में सरपट दौड़ने वाली रेलों की चपेट में आकर नहीं मरेंगे ?

यह वनविभाग और तथाकथित वन्यजन्तु प्रेमियों द्वारा बड़े पैमाने पर फैलाया गया ऐसा सफेद झूठ है, जिसे बाहरी शहरी समाज भी सच के रूप में स्वीकार करता है। जबकि सच ये है कि आज देश के जंगलों और उसमें रहने वाले वनाश्रित समुदायों की दयनीय स्थिति की सबसे बड़ी जिम्मेदार सरकारें हैं, जिन्होंने विकास का पैमाना केवल अभिजात वर्ग व मध्यम वर्ग को ही ध्यान में रखकर तय किया है। जंगल दुधवा का हो या राजाजी का वन्यजीवों को अगर बचाना है तो इस बात का जवाब तो सरकारों को देना ही होगा कि जिस जंगल में वनाश्रितों की मौजूदगी को अपराध के रूप में देखा जाता है, उसमें से गुज़र कर आखिर हाईटेंशन तारें क्यों जा रही हैं? जा भी रहीं हैं तो आखिर कहां? क्या जंगल में बिछाई गयी इन लाईनों से जंगल में बसे गांवों को बिजली मुहैया कराई जा रही है या बड़े-बड़े प्रोजेक्टों को व कारखानों को? जंगल के अन्दर के गांवों की स्थिति का अगर जायज़ा लिया जाये तो इन तमाम गांवों में बिजली की व्यवस्था न होने के कारण सूरज के डूबते ही इनकी जि़न्दगी अंधेरे में डूब जाने की वजह से एकदम ठहर जाती है। रोशनी भर के लिये भी इन्हें बिजली मुहैया नहीं कराई जाती। दुधवा में किसी भी संचार कम्पनी का टावर न होने की वजह से ये सभी गांव बाहर की दुनिया के संवाद संपर्क से भी कट जाते हैं। विकास के नाम पर बिछाये गये इन बिजली के तारों और रेल लाईनों का विरोध किया जाये तो इन्हीं वन्य जन्तु प्रेमियों और सरकारों द्वारा तुरन्त उसे विकास विरोधी होने की संज्ञा से नवाज़ दिया जायेगा।

दूसरी अगर हम देखें तो लखीमपुर खीरी और पीलीभीत में यहां से गुज़रकर जाने वाली शारदा नदी पर विशालकाय बांध और हाईडल प्रोजेक्ट बना दिये गये हैं। जिनके कारण हजारों हैक्टेअर लोगों की खेती, निवास और सामुदायिक इस्तेमाल की ज़मीनें डूब में आकर गर्क हो गयीं हैं। इसके कारण भारत-नेपाल सीमा के जंगलों में होने वाली हाथियों की आवाजाही पर भी गहरा असर पड़ा है। जबकि हिमालय पर्वत श्रंखला की तलहटी शिवालिक पहाडि़यों से लेकर तराई जंगलों का जम्मू से लेकर भूटान तक इनमें मौजू़द जंगली हाथियों का यह पूरा क्षेत्र कारीडोर है। जो कि ऐतिहासिक काल से जंगली हाथियों द्वारा अपने आने जाने के लिये इस्तेमाल किया जाता रहा है। हाथी अपने सामाजिक झुंड में भोजन की तलाश में इस कारीडोर में हजारों मील की यात्रा अपनी अनुवांशिक यादाश्त के सहारे करते हैं। इस तरह से एक हाथी को कम से कम 60 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की ज़रूरत होती है, जिसमें वे निर्बाध विचरण कर सकें। लेकिन आज़ादी के बाद पिछले 60 सालों में इस पूरे कारीडोर में शहरों का विस्तार, शारदा-गंगा जैसी नदियों से नहरों का विस्तार, इन पर बिजली परियोजनाओं का विस्तार और लगातार बढ़ते घने ट्रेफिक के चलते अब हाथियों के लिये इन नदियों और शहरों को पार करके जंगलों में विचरण करना बहुत मुश्किल काम हो गया है। यही कारण है कि अपने प्राकृतिक विचरण क्षेत्र छिन जाने से वे लगातार हिंसक होते जा रहे हैं। जिसका खामियाजा भी उच्च मध्यम या उच्च वर्गीय उस शहरी समाज को या सरकारों को नहीं भुगतना पड़ता जिनके अन्धे लालच के कारण ये सब परियोजनायें लगाईं जाती हैं, बल्कि इसका नुक्सान भी जंगल क्षेत्रों में तमाम जंगली जानवरों के साथ सहअस्तित्व बनाकर सदियों से जंगलों में रहने वाले उस वनाश्रित समाज को होता है, जिन्होंने हमेशा जंगल की रक्षा करके प्राकृतिक संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है और जिन्हें कभी भी सरकारों द्वारा देश की गरीब जनता पर थोपे गये इस तथाकथित विकास का लाभ नहीं मिलता। सरकारें जो कि विकास के नाम पर वनों का अंधाधुंध दोहन करने में लगी हुयी हैं, इस दोहन की शुरुआत भी यहां पर वैश्विक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिये अंग्रेजों ने की थी। अंग्रेज सरकार ने वनों राजस्व कमाने का ज़रिया बनाकर वनविभाग जैसे भ्रष्ट विभाग को जन्म दिया, जोकि वनों, वन्य प्राणियों और वनों में ऐतिहासिक काल से रहने वाले वनसमुदायों को भी बरबाद करने का सबसे बड़ा दोषी है।

मात्र राजस्व कमाने के लालच से ब्रिटिशकाल से सरकारों द्वारा ज़ारी इस प्रक्रिया से वन लगातार सिकुड़ते चले गये और हाथी जैसा विशालकाय जीव एक जगह सिमटकर कैद होता चला गया। इसमें जो रही सही कसर थी वो वनविभाग ने पूरी कर दी। हर दस साल में बनायी जाने वाली कार्ययोजनाओं के तहत हजारों हजार पेड़ एक-एक जंगल से काटना तय करके जंगलों को शमशान में तब्दील किया जाना आज भी जारी है। पिछले 70 सालों में ही प्राकृतिक जंगलों का इस तरह से सर्वनाश करके महज व्यवासियक पेड़ों के जंगल में तब्दील कर दिया गया है जिसकी कहानी वन विभाग द्वारा ही बनाये गये तमाम वर्किंग प्लान बयान करते हैं। इस तरह से एकप्रजातीय पेड़ों का लगाना और प्राकृतिक जंगलों का सर्वनाश एक ही समय में साथ-साथ किये जाते रहे और हाथियों के लिये जंगल में खाने के लिये कुछ भी नहीं छोड़ा गया। नतीजतन वे भोजन की तलाश में गांवों और बस्तियों की ओर रुख करने लगे। देखा जाए तो जंगलों के भीतर लगातार बढ़ रहा मानव व वन्यजन्तुओं के बीच का द्वन्द्ध सरकारों द्वारा थोपे गये तथाकथित विकास व वनविभाग द्वारा जंगलों में बड़े पैमाने पर की गयी लूट का ही नतीजा है। बड़े-बडे़ तथाकथित पर्यावरणविद तथा वनवैज्ञानिक जिसका सारा दोष वनाश्रित समुदायों के सर पर मढ़ते हैं और उन्हें वनक्षेत्रों से खदेड़ देना ही एकमात्र इलाज मानते हैं। घटते जंगलों और लगातार दूषित होते पर्यावरण को बचाने के लिये जब सोच आई तो इसकी ठेकेदारी भी उन्हीं लोगों ने ले ली जिन्होंने 1972 में वन्य-जन्तु संरक्षण अधिनियम आने के पूर्व खानदानी शौक के तहत शेर, चीता, बाघ, हिरण, पाड़ा आदि सभी तरह के दुर्लभ वन्यजन्तुओं का बेशुमार शिकार किया। इसमें सबसे उल्लेखनीय नाम है बिली अर्जन सिहं का जिसे देश का सबसे बड़ा पर्यावरण विद् माना जाता है। इन्होनें महज़ 10 साल की उम्र में बाघ का शिकार किया था और दुधवा में एक बाघिन को पालतू तक बना कर कैद कर के अपने फार्म हाउस में रखा था। यहीं व्यक्ति 1972 के वन्य जन्तु संरक्षण अधिनियम बन जाने के बाद सबसे बड़ा बाघ प्रेमी बन गया। और दुधवा के अंदर 400 एकड़ से भी उपर भूमि पर अवैध दख़ल किया। जिसके उपर बसपा सरकार ने दो साल पहले जांच कर 250 एकड़ भूमि को जब्त करने के निर्देश भी ज़ारी किए है। इसी व्यक्ति ने यहां पर ग़रीब थारू आदिवासीयों के आवागमन व भारत से नेपाल को जोड़ने के लिए बिछाई गई रेलवे लाईन को सन् 1980 में उखड़वा डाला। इसी लाबी द्वारा इस टकराव को कम करने का एकमात्र रास्ता जंगल को मानव रहित कर देने के में खोज लिया। इस काम को पूरा करने के लिये करोड़ों के बजट बनाकर सरकारों से व विदेशी ऐजेंसियों से करोड़ों-अरबों रुपया तो हड़प लिया गया, लेकिन इस कसरत से न तो वन्य जन्तु बचे और न ही जंगलों में रहने वाला इन्सान। सन् 2006 में वनाधिकार कानून के आ जाने के बाद भी यह लाबी आज भी वनाश्रितों को 10 लाख रू0 का लालच देकर जंगल छोड़ने के लिये विवश करने की कोशिशों में लगी हुई है। जबकि वनाधिकार कानून के आने के बाद जंगलों में पीढि़यों से बसे तमाम आदिवासियों और अन्य परंपरागत वननिवासियों को उनकी जोत की, निवास की, इसके अलावा गलत प्रक्रिया में जाकर तमाम छिनी हुई ज़मीनों पर मालिकान हक स्थापित किया जाना है और सामुदायिक अधिकारों के तहत तमाम जंगल से प्राप्त होने वाली वनोपज, सामुदायिक इस्तेमाल की ज़मीनों पर भी अधिकारों का पुनस्र्थापन किया जाना है।


 तथ्य बताते हैं कि जंगलों में लगातार हो रही बेजु़बान वन्यजन्तुओं की मौतों के लिये शासन, प्रशासन, वनविभाग व पूर्व की सरकारें और इनकी बनायी गयी नीतियां  ही जिम्मेदार हैं, ना कि स्थानीय लोग। आज ये भ्रष्ट तंत्र अपने आप को और थोपे गये विकास को जंगल से हटाकर प्रबंधन की जिम्मेदारी वनसमुदायों को सौंप दें तो वन्यजन्तु भी जि़न्दा रह सकेंगे, जंगल भी बच जाएगें और जंगलों पर निर्भरशील लोग भी।

अगर सरकार हाथीयों के प्रति इतनी ही चिंतिंत है तो क्यों इन हाई टेंशन तारों को नहीं हटाया जाता? क्यों नहीं दिल्ली से देहरादून जोड़ने वाली रेल लाईन की पटरी जो कि राजाजी नेशनल पार्क के अंदर से होकर जाती है को उखाड़ा जाता? जबकि देहरादून जाने के अनेको साधन उपलब्ध है। यह इसलिए नहीं किया जा सकता चूंकि दिल्ली व देहरादून के अभिजात वर्ग इस सुविधा को इस्तेमाल करते हैं व उनका मानना है रेल लाईन के बगैर तो वे दिल्ली से कट जाएगें।  लेकिन वहीं दूसरी इन्हीं वनों में पीढ़ीयों से रहने वाले व वनविभाग के आने से पहले रहने वाले नूरआलम, नूरजमाल, जहूर हसन जैसे हज़ारों वनगुजरो को हटाये जाने की बात क्यों होती है जबकि इनकी मौजूदगी से ही राजाजी पार्क में आज भी हाथीयों के झुंड़ भी नज़र आते हैं। जहां वनगुजरों  ने अपने जानवरों के लिए पानी की बावलीयां बनाई हुई है वहीं पर हाथीयों के झुंड़ भी जाकर अपनी प्यास बुझाते हैं। जबकि इसी पार्क के अंदर पानी की बावलीयों बनाने के लिए पार्क प्रशासन पर करोडो रूपये का घोटाला करने का आरोप है, ये बावलीयां काग़ज पर तो मौजूद है लेकिन जंगल में इनका कहीं अता पता नहीं है। 

दरअसल जंगलों, वन्यजीवों और वनाश्रित समुदायों सभी के लिये सरकारों द्वारा विकास का जो पैमाना तय किया गया है वही सिरे से गलत है और घातक सिद्ध हो रहा है। विकास के इस माडल को अमली जामा पहनाने के नाम पर वन्य जन्तुओं की ही नहीं बल्कि जंगल क्षेत्रों बसे हुए समुदायों की भी हत्यायें की जा रही हैं। अगर हमें अपने जंगल, वन्यजन्तुओं, वनाश्रित समुदायों और अपने पर्यावरण को बचाना है तो हमें मिलकर विकास की इस अवधारणा को ही चुनौती देनी होगी, जोकि गैर बराबरी के सिद्धांत पर टिकी हुई है।




 रोमा  (लेखिका राष्ट्रीय वनजीवी श्रमजीवी मंच की संस्थापक सदस्यों में एक हैं। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र कैमूर लखीमपुर खीरी के तराई क्षेत्र , शिवालिक  इलाकों व  उत्तराखंड  में  सक्रिय हैं। उन्होंने राज्य में वनाधिकार कानून को लागू कराने के लिए दलित और आदिवासी महिलाओं को गोलबंद करने में खास भूमिका निभाई है। वनाधिकारो  को  लागू  करने  के  आन्दोलन  पर  सोनभद्र  में  2007  में  उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया था  लेकिन  उन्हें  राज्य  सरकार  द्वारा  बरी  किया  गया, अभी  वे वनाधिकार कानून पर अमल के लिए बनी राज्य  स्तरीय  निगरानी   समिति की विशेष आमंत्रित सदस्य हैँ।  रोमा 2010 में भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की तरफ से वनाधिकार कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई संयुक्त समिति की सदस्य रह चुकी हैं। इनसे romasnb@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है)

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