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Apr 24, 2020

जलवायु परिवर्तन- कारण ,प्रभाव एवं उपाय




-डॉ दीपक कोहली-

वर्ष 2100 तक भारत समेत अमेरिका, कनाडा, जापान, न्यूजीलैंड, रूस और ब्रिटेन जैसे सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएँ जलवायु परिवर्तन के असर से अछूती नहीं रहेंगी। कुछ समय पूर्व कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की एक शोध टीम ने 174 देशों के वर्ष 1960 के बाद जलवायु संबंधी आँकड़ों का अध्ययन किया है। अध्ययन के अनुसार, पृथ्वी पर 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान की स्थिति में विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ मानव के अस्तित्व पर भी खतरा उत्पन्न हो जाएगा। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वहीँ संयुक्त राष्ट्र आपदा जोखिम न्यूनीकरण कार्यालय (UN Office for Disaster Risk Reduction-UNDRR) के अनुसार, भारत को जलवायु परिवर्तन के कारण हुई प्राकृतिक आपदाओं से वर्ष 1998-2017 के बीच की समयावधि के दौरान लगभग 8,000 करोड़ डॉलर की आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा है। यदि पूरी दुनिया की बात की जाए तो इसी समयावधि में तकरीबन 3 लाख करोड़ डॉलर की क्षति हुई है। हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क के तत्वावधान में आयोजित COP-25 सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिये विभिन्न दिशा-निर्देश ज़ारी किये गए।         

जलवायु परिवर्तन को समझने से पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है कि जलवायु क्या होती है? सामान्यतः जलवायु का आशय किसी दिये गए क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है।अतः जब किसी क्षेत्र विशेष के औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो उसे जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहते हैं।जलवायु परिवर्तन को किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि वर्तमान संदर्भ में बात करें तो यह इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है।
पृथ्वी का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक बताते हैं कि पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम हो सकता है, परंतु इस प्रकार के किसी भी परिवर्तन का मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है। पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा, परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है।

जलवायु परिवर्तन के कारण:

जलवायु परिवर्तन के कारणों का बेहतर विश्लेषण करने के लिये इसे दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, प्राकृतिक गतिविधियाँ एवं मानवीय गतिविधियाँ।

1.प्राकृतिक गतिविधियाँ :

महाद्वीपीय संवहन- सृष्टि के प्रारम्भ में सभी महाद्वीप एक ही बड़े धरातल के रूप में पृथ्वी पर विद्यमान थे, किंतु सागरों के कारण धीरे-धीरे वे एक दूसरे से दूर होते गए और आज उनके अलग-अलग खंड बन गए हैं। महाद्वीपीय संवहन अर्थात महाद्वीपों का खिसकना अब भी जारी है जिसकी वजह से समुद्री धाराएँ तथा हवाएँ प्रभावित होती हैं और इनका सीधा प्रभाव पृथ्वी की जलवायु पर पड़ता है। हिमालय पर्वत की श्रृंखला प्रतिवर्ष एक मिलीमीटर की दर से ऊँची हो रही है, जिसका मुख्य कारण भारतीय उपखंड का धीरे-धीरे एशियाई महाद्वीप की ओर खिसकना माना जाता है। 

ज्वालामुखी विस्फोट- ज्वालामुखी विस्फोट होने पर बड़ी मात्रा में विभिन्न गैसें जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, जलवाष्प आदि तथा धूलकण वायुमंडल में उत्सर्जित होते हैं, जो कि वायुमंडल की ऊपरी परत, समतापमंडल में जाकर फैल जाते हैं तथा पृथ्वी पर आने वाले सूर्य प्रकाश की मात्रा घटा देते हैं। जिससे पृथ्वी का तापमान कम हो जाता है। एक अनुमान के अनुसार, प्रतिवर्ष लगभग 100 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड गैस ज्वालामुखी विस्फोट द्वारा वायुमंडल में फैल जाती है। वर्ष 1816 में इंग्लैंड, अमेरिका तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों में ग्रीष्म ऋतु में जो अचानक ठंड आई थी, जिसे ‘‘Killing Summer Frost’’ कहा गया, उसका कारण वर्ष 1815 में इंडोनेशिया में हुए अनेक ज्वालामुखी विस्फोटों को माना जाता है। 
पृथ्वी का झुकाव- पृथ्वी के झुकाव के कारण ऋतुओं में परिवर्तन होता है। अधिक झुकाव अर्थात अधिक गर्मी तथा अधिक सर्दी और कम झुकाव अर्थात कम गर्मी तथा कम सर्दी का मौसम। इस प्रकार पृथ्वी के झुकाव के कारण जलवायु प्रभावित होती है।

समुद्री धाराएँ- जलवायु को संतुलित रखने में सागरों का बड़ा योगदान रहता है। पृथ्वी के 71% भाग में समुद्र व्याप्त है, जो कि वातावरण तथा ज़मीन की तुलना में दोगुना सूर्य का प्रकाश का अवशोषण करते हैं। सागरों को कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे बड़ा सिंक कहा जाता है। वायुमंडल की अपेक्षा 50 गुना अधिक कार्बन डाइऑक्साइड गैस समुद्र में होती है। समुद्री बहाव में बदलाव आने से जलवायु प्रभावित होती है।

2.मानवीय गतिविधियाँ:

शहरीकरण- उन्नीसवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति की ओर सभी का ध्यान आकर्षित हुआ। रोज़गार पाने के लिये गाँवों में स्थित आबादी शहरों की तरफ प्रस्थान करने लगी और शहरों का आकार दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। मुंबई, कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों में उनकी क्षमता से कई गुना अधिक आबादी निवास कर रही है, जिससे शहरों के संसाधनों का असीमित दोहन हो रहा है। जैसे-जैसे शहर बढ़ रहे हैं, वहाँ पर उपलब्ध भू-भाग दिन-प्रतिदिन ऊँची-ऊँची इमारतों से ढँकता जा रहा है, जिससे उस स्थान की जल संवर्धन क्षमता कम हो रही है तथा बारिश के पानी से प्राप्त होने वाली शीतलता में भी कमी हो रही है, जिससे वहाँ के पर्यावरण तथा जलवायु पर निरंतर प्रभाव पड़ रहा है।

औद्योगिकीकरण- जलवायु परिवर्तन में औद्योगिकीकरण की बड़ी भूमिका है। विभिन्न प्रकार की मिलें वातावरण में सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड तथा अनेक प्रकार की अन्य ज़हरीली गैसें और धूलकण हवा में छोड़ती हैं, जो वायुमंडल में काफी वर्षों तक विद्यमान रहती है। यह ग्रीन हाउस प्रभाव, ओज़ोन परत का क्षरण तथा भूमंडलीय तापमान में वृद्धि जैसी समस्याओं का कारण बनते हैं। वायु, जल एवं भूमि प्रदूषण भी औद्योगिकीकरण की ही देन हैं।

वनोन्मूलन- निरंतर बढ़ती हुई आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये वृक्ष काटे जा रहे हैं। आवास, खेती, लकड़ी और अन्य वन संसाधनों की चाह में वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, जिससे पृथ्वी का हरित क्षेत्र तेजी से घट रहा है और साथ ही जलवायु के परिवर्तन में तेजी आ रही है। 

रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों का प्रयोग- पिछले कुछ दशकों में रासायनिक उर्वरकों की माँग इतनी तेजी से बढ़ी है कि आज विश्व भर में 1000 से भी अधिक प्रकार की कीटनाशी उपलब्ध हैं। जैसे-जैसे इनका उपयोग बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे वायु, जल तथा भूमि में इनकी मात्रा भी बढ़ती जा रही है, जो कि पर्यावरण को निरंतर प्रदूषित कर घातक स्थिति में पहुँचा रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन से प्रभाव :

वर्षा पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के मानसूनी क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएँ पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी तथा पीने योग्य जल की आपूर्ति पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगे। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश के पूर्वोत्तर तथा दक्षिण-पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी। परिणामस्वरूप वर्षा जल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी।
समुद्री जल स्तर पर प्रभाव-जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ग्लेशियरों के पिघलने के कारण विश्व का औसत समुद्री जल स्तर इक्कीसवीं शताब्दी के अंत तक 9 से 88 सेमी. तक बढ़ने की संभावना  है, जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी जो समुद्र से 60 कि.मी. की दूरी पर रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भारत के उड़ीसा, आँध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात और पश्चिम बंगाल राज्यों के तटीय क्षेत्र जलमग्नता के शिकार होंगे। परिणामस्वरूप आसपास के गाँवों व शहरों में 10 करोड़ से भी अधिक लोग विस्थापित होंगे जबकि समुद्र में जल स्तर की वृद्धि के परिणामस्वरूप भारत के लक्षद्वीप तथा अंडमान निकोबार द्वीपों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। समुद्र का जल स्तर बढ़ने से मीठे जल के स्रोत दूषित होंगे परिणामस्वरूप पीने के पानी की समस्या होगी।

कृषि पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कृषि पैदावार पर पड़ेगा। संयुक्त राज्य अमरीका में फसलों की उत्पादकता में कमी आएगी जबकि दूसरी तरफ उत्तरी तथा पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व देशों, भारत, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया तथा मैक्सिको में गर्मी तथा नमी के कारण फसलों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी होगी। वर्षा जल की उपलब्धता के आधार पर धान के क्षेत्रफल में वृद्धि होगी। भारत में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप गन्ना, मक्का, ज्वार, बाजरा तथा रागी जैसी फसलों की उत्पादकता दर में वृद्धि होगी जबकि इसके विपरीत मुख्य फसलों जैसे गेहूँ, धान तथा जौ की उपज में गिरावट दर्ज होगी। आलू के उत्पादन में भी अभूतपूर्व गिरावट दर्ज होगी।

जैव विविधता पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव जैवविविधता पर भी पड़ेगा। किसी भी प्रजाति को अनुकूलन हेतु समय की आवश्यकता होती है। वातावरण में अचानक परिवर्तन से अनुकूलन के प्रभाव में उसकी मृत्यु हो जाएगी। जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव समुद्र की तटीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली दलदली क्षेत्र की वनस्पतियों पर पड़ेगा जो तट को स्थिरता प्रदान करने के साथ-साथ समुद्री जीवों के प्रजनन  का आदर्श स्थल भी होती हैं। दलदली वन जिन्हें ज्वारीय वन भी कहा जाता है, तटीय क्षेत्रों को समुद्री तूफानों में रक्षा करने का भी कार्य करते हैं। जैव-विविधता क्षरण के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असंतुलन का खतरा बढ़ेगा।
मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु में उष्णता के कारण श्वास तथा हृदय संबंधी  बीमारियों में वृद्धि होगी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप न सिर्फ रोगाणुओं में बढ़ोत्तरी होगी अपितु इनकी नई प्रजातियों की भी उत्पत्ति होगी जिसके परिणामस्वरूप फसलों की उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।  मानव स्वास्थ्य पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते एक बड़ी आबादी विस्थापित होगी जो पर्यावरणीय शरणार्थीकहलाएगी। इससे स्वास्थ्य संबंधी और भी समस्याएँ पैदा होंगी।

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु वैश्विक प्रयास:

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है। IPCC आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (UNFCCC) एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। वर्ष 1995 से लगातार UNFCCC की वार्षिक बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसके तहत ही वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता (Kyoto Protocol) हुआ और विकसित देशों (एनेक्स-1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य तय किया गया। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स-1 में रखा गया है। 

पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य के साथ संपन्न 32 पृष्ठों एवं 29 लेखों वाले पेरिस समझौते को ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते के रूप में मान्यता प्राप्त है।COP-25 सम्मेलन में लगभग 200 देशों के प्रतिनिधियों ने उन गरीब देशों की मदद करने के लिये एक घोषणा का समर्थन किया जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से जूझ रहे हैं। इसमें पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप पृथ्वी पर वैश्विक तापन के लिये उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैसों में कटौती के लिये "तत्काल आवश्यकता" का आह्वान किया गया।

जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु भारत के प्रयास:

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना का शुभारंभ वर्ष 2008 में किया गया था। इसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और इससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है। इस कार्ययोजना में 8 मिशन शामिल हैं-
1.राष्ट्रीय सौर मिशन
2.विकसित ऊर्जा दक्षता के लिये राष्ट्रीय मिशन
3.सुस्थिर निवास पर राष्ट्रीय मिशन
4.राष्ट्रीय जल मिशन
5.सुस्थिर हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र हेतु राष्ट्रीय मिशन
6.हरित भारत हेतु राष्ट्रीय मिशन
7.सुस्थिर कृषि हेतु राष्ट्रीय मिशन
8.जलवायु परिवर्तन हेतु रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन

अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन सौर ऊर्जा से संपन्न देशों का एक संधि आधारित अंतर-सरकारी संगठन (Treaty-Based International Intergovernmental Organization) है। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत भारत और फ्रांस ने 30 नवंबर, 2015 को पेरिस जलवायु सम्‍मेलन के दौरान की थी। ISA के प्रमुख उद्देश्यों में वैश्विक स्तर पर 1000 गीगावाट से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता प्राप्त करना और वर्ष 2030 तक सौर ऊर्जा में निवेश के लिये लगभग 1000 बिलियन डॉलर की राशि को जुटाना शामिल है।

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प्रेषक- डॉ दीपक कोहली, उपसचिव, पर्यावरण ,वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग ,उत्तर प्रदेश शासन, 5 /104, विपुल खंड, गोमती नगर, लखनऊ -226010 
(मोबाइल  - 9454410037)



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