वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jul 22, 2014

उथली होती नदियाँ और डूबती धरती !


फिर खीरी के जंगलों में बाढ़ की दस्तक....

शारदा और घाघरा नदी ने लिया रौद्र रूप, सुहेली भी उफनाई....

ये मंजर है लखीमपुर खीरी के दुधवा नेशनल पार्क के बाहरी इलाकों का, ये रिहाइशी इलाके जलमग्न हो गए है और सड़के सिर्फ मानचित्रों पर दिखाई देती है, असल में गायब है, भारत के उत्तर प्रदेश के खीरी जनपद का नाम दुनिया में शाखू के जंगलों और यहाँ के बाघों के लिए मशहूर है, ये वन्य संपदा हजारों सालों से हिमालय की तलहटी में फल फूल रही है, पर अब ये मंजर ये बयान कर रहा है, की ये जानवर और वनस्पतियाँ खतरे में है, जब तकनीकी दिमाग वाला इंसान इस बाढ़ की चपेट में है और साल दर साल वह अपने घर और संपत्ति को खो देता है, उसे सड़क भी मुहैया नहीं होती बसर करने के लिए, और सरकारे सिर्फ बाढ़ योजनाओं पर करोड़ों का घालमेल कर चुप बैठ जाती है अगले साल के इन्तजार में, की कब बाढ़ आये और कब पैसा पानी की तरह बहाया जाए अपने अपने घरों में !! अब ऐसे हालातों में उन जीवों की स्थिति क्या होती है, जो प्रकृति के नियमों के मुताबिक़ चलते आये है सदियों से, उन्हें हर उन विपरीत परिस्थितियों से दो चार हो लेने की कूबत रही है जो प्राकृतिक आपदाओं के रूप में आती है, पर इंसानी करतूतों की वजह से इन महा प्रलयों से निपटने की कूबत उनमे नहीं है, जाहिर है इन तमाम जानवरों और वनस्पतियों की प्रजातियाँ इस भयंकर बाढ़ की चपेट में आकर अपना स्थानीय वजूद खो देती है, या किसी दूसरी जगह पर विस्थापित होने की कोशिश करती है जहां इंसान पहले से इनकी ताक में बैठा है इन्हें नष्ट करने के लिए, जानवरों का शिकार वनस्पतियों को उगने से पहले ही कृषि भूमि पर हल चला देता है या परती पडी भूमियों पर कंक्रीट का जंगल तैयार कर देता है, इन प्रजातियों के सुरक्षित रहने की उन सारी संभावनाओं को उजाड़ता हुआ मनुष्य खुद इस प्रलय की गोद में बैठा है.

 


तराई के जनपदों में जब हिमालय से उतरती हुई तेज जलधाराएं जिन्हें राह में पड़ने वाले जंगल पोखर व् परती भूमियाँ अपने आगोश में लेकर शांत करती थी तो ये जलधाराए हमारी नदियों के मुहाने की मर्यादाओं का पालन करते हुए अविरल बहती थी ..कल कल की मंद ध्वनि  के साथ ! किन्तु पहाड़ों से लेकर समतल इलाकों में मौजूद जंगलों का  बेजा कटान तालाबों और स्थानीय छोटी नदियों का विनाश इन जलधाराओं की गति बढाता गया और साथ ही इनकी राहों में सिल्ट (गाद) जमा करता गया, ये सिल्ट घास के मैदानों और जंगलों को ख़त्म कर कृषि भूमि में तब्दील कर देने से पानी के साथ रेत और मिट्टी का बहाव नदियों की राहों में जमा होने लगा नतीजतन नदियाँ अपनी मर्यादाओं को लांघ हमारे शहर घर और सड़क तक आ पहुँची, कोइ है जो समझ सकता है इनका दर्द, और दूर कर सकता है इनकी राहों में पडी उस सिल्ट को, ताकि इनके राहों की गहराई इन्हें अपने में समाये हुए रख सके और इनकी अविरल धारा बंगाल की खाड़ी से समंदर के हवाले हो सके.....

वनों को फिर विकसित करे, घास के मैदानों को दोबारा अस्तित्व में लाया जाए,  तालाबों को और उनकी गहराई को भी सुनाश्चित करे, और जो छोटी छोटी नदियाँ हमारे गाँवों से होकर गुजराती है, इन विशाल नदियों की सहायक होती है उनके अस्तित्व को बचा ले, यह जरूरी है धरती के लिए और इस पर बसने वाले जीवों के लिए .याद रहे .इंसान भी उनमे से एक है अलाहिदा नहीं!


और यह सब  किसी एक कार्ययोजना बना देने से नहीं होने वाला और न ही अरबों कागज़ के नोट खर्च कर देने से हो सकेगा. ये हो सकता है जब समूचा मानव समुदाय अपनी मर्यादा में रहना सीख जाए फिर से सदियों पहले वाला मनुष्य जिसे प्रकृति का सम्मान करना आता हो ....हम अपनी मर्यादा न लांघे तो यकीन मानिए  ये नदियाँ कभी भी अपनी मर्यादा नहीं लांघेगी.




 

सम्पादक की कलम से ....
कृष्ण कुमार मिश्र 
krishna.manhan@gmail.com 

2 comments:

  1. हमने पहाड़ों को भी गंजा कर दिया इसलिए वहां की सारी मिटटी बह कर मैदानों में आ गयी जरुरत वापस पहाड़ी क्षेत्रों में वन लगाने की है , अन्यथा और बदहाली होगी

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