वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jul 12, 2014

मैं हैरान हूं, परेशान हूं मैं गोमती हूं




० एक नदी की व्यथा कथा

हरिओम त्रिवेदी*

पुवायां। मैं गोमती हूं। कुछ लोग मुझे आदिगंगा के नाम से भी पुकारते हैं।  इंद्र ने एक बार गौतम ऋषि का रूप धर कर उनकी पत्नी अहिल्या से छल किया था। कुपित गौतम ऋषि ने इंद्र और अहिल्या को श्राप दे दिया था। काफी अनुनय, विनय करने पर गौतम ऋषि ने श्राप मुक्ति के लिए इंद्र को मेरे तटों पर १००१ स्थानों पर शिवलिंग स्थापित कर तपस्या करने को कहा था। इंद्र ने मेरे तटों पर शिवलिंगों की स्थापना कर तपस्या की तब कहीं जाकर उनको ऋषि के श्राप से मुक्ति मिल सकी। इंद्र को श्राप से मुक्ति मिल गई लेकिन मैं आज प्रदूषण, जलीय जीवों की हत्या, तटों पर की जा रही खेती से इस कदर घायल और व्याकुल हूं कि आज मुझे भी किसी भागीरथ की दरकार है। 

मेरी यात्रा पीलीभीत जनपद के माधौटांडा कसबे के पास (गोमत ताल) फुलहर झील से शुरू होती है। पीलीभीत में उद्गम स्थल के अलावा त्रिवेणी बाबा आश्रम, इकोत्तरनाथ, शाहजहांपुर में सुनासिरनाथ (बंडा), बजरिया घाट, पन्नघाट, मंशाराम बाबा, भंजई घाट, मंझरिया घाट, लखीमपुर में सिरसाघाट, टेढ़ेनाथ बाबा, मढिय़ा घाट, हरदोई में धोबियाघाट, प्राकृतिक जलस्रोत, हत्याहरण, नल दमयंती स्थल, सीतापुर में नैमिषारण्य, चक्रतीर्थ, ललिता देवी, अठासी कोस परिक्रमा, दधीचि आश्रम, मनोपूर्णा जल प्रपात, लखनऊ में चंद्रिका देवी मंदिर, कौडिन्य घाट, मनकामेश्वर मंदिर, संकटमोचन हनुमान मंदिर, बाराबंकी में महदेवा घाट, टीकाराम बाबा, सुल्तानपुर में सीताकुंड तीर्थ, धोपाप, प्रतापगढ़ में ढकवा घाट, जौनपुर में जमदग्नि आश्रम, वाराणसी में गोमती गंगा मिलन स्थल, मार्कडेश्वर नाथ आदि आश्रम और तट हैं। मुझे सदानीरा बनाने में पीलीभीत में वर्षाती नाला, शाहजहांपुर में  झुकना, भैंसी, तरेउना, लखीमपुर में छोहा, अंधराछोहा, सीतापुर में कठिना, सरायन, गोन, लखनऊ में कुकरैल, अकरद्दी, बाराबंकी में रेठ, कल्याणी, सुल्तानपुर में कादूनाला, जौनपुर में सई नदी का योगदान रहता है। ९६० किमी का सफर तय कर बनारस गाजीपुर के बीच मार्कण्डेय आश्रम के पास मैं गंगा मैया की गोद में विश्राम लेती हूं।

पीलीभीत से मार्कंडेय आश्रम तक के सफर में तमाम लोग मेरे कई रूप देखते हैं लेकिन मैं अपने ममतामयी मन से सभी का कल्याण करने की भावना लेकर निरंतर चलती रहती हूं। कहा गया है कि 'वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै नदी न संचय नीर, परमारथ के कारने साधुन धरा शरीरÓ। अब साधु को अपनी पीड़ा किसी से कहने की क्या जरूरत है लेकिन आज मेरा मन आपसे अपनी पीड़ा कहने का हो रहा है। इस पीड़ा के पीछे मानव के साथ ही जीव जंतुओं और पेड़ पौधों का भला छिपा हुआ है। इस कारण मुझे उम्मीद है कि आप मेरी पीड़ा को पढ़ेंगे, समझेंगे और इस पर ध्यान भी देंगे। 

मैं धीरे -धीरे बहती हुई पर्यावरण की रक्षा के लिए अहम पेड़ पौधों को सिंचित करती हूं। खेतों को पानी देती हूं और लगतार बहते हुए निरंतर आगे बढऩे का संदेश देती हूं। मैं बताती हूं कि गति से ही जीवन का श्रंगार है, मेरे पैरों में दीवार ना बांधो। मैं कहती हंू कि रास्ते कितने भी मुश्किल क्यों न हों वह हासिल जरूर होते हैं। मैं यह भी संदेश देती हूं कि सब कुछ सहकर भी आगे बढऩे को ही धार कहते हैं। मैं बताती हूं कि सीमाएं कुछ भी नहीं होती। यह कैसे तोड़ी जाती हैं और तोड़कर फिर कैसे जोड़ी जाती हैं। युवाओं को मेरा संदेश होता है कि अपना पथ अपने आप चुनना चाहिए। अपनी रफ्तार, अपनी कश्ती और अपनी पतवार से आगे बढ़ा जा सकता है। सागर के घर पहुंचकर मैं थोड़ा रूकती हूं, सुस्ताती हूं, स्थिरता का सुख लेती हूं, इसकी तह तक जाती हूं। इसके बाद सूर्य की किरणों से गर्मी लेकर बादलों का रूप धर फिर से परोपकार के लिए मैदान में आ जाती हूं। 

अपनी कहानी सुनाते हुए अब मेरा मन बेहद आहत हो चला है। कारण यह है कि मेरा भविष्य मुझे चिंता में डाल रहा है। जिस मनुष्य के लिए मैं इतना सब करती हूं वह थोड़े लालच में मेरे घर आंगन में रहने वाले जीवों की हत्या कर रहे हैं। इससे मुझमें गंदगी बढ़ती जा रही है। मेरे तट तक अतिक्रमण कर लिया गया है। खेतों में डाली जाने वाली जहरीली दवाओं का असर है कि मेरे घर में रहने वाले जंतु मरते जा रहे हैं। तटों के पेड़ पौधे बेरहमी से काटे जा रहे हैं। मैं उनकी करूण पुकार सुनकर भी कुछ नहीं कर पाती हूं। लोग घरों में हवन आदि कराने के बाद राख, कागज, सूखे फूल आदि मेरे ऊपर फेंक देते हैं। लोग मुझे मां कहते हैं, क्या कोई अपनी मां के ऊपर भी गंदगी फेंकता है। इस गंदगी में मेरा दम घुटने लगा है। जहरीले पानी और कचरे से मेरे घर के जीव मर रहे हैं इससे घर में गंदगी बढ़ती जा रही है। पीलीभीत में जहां से मैं निकलती हूं वहां से शाहजहांपुर, लखीमपुर, हरदोई में कई जगह मुझे बांध दिया गया है। अब भला मां को बांधने से कैसे कल्याण हो सकता है लेकिन यह बात कोई समझता ही नहीं है। लखनऊ, सुल्तानपुर, जौनपुर से लेकर वाराणसी तक मेरी धार चलती रहती है लेकिन इसमें कारखानों का इतना गंदा पानी मिल चुका होता है कि मेरा अमृत समान पानी जहर बन चुका होता है। तटों तक खेती के कारण जहरीली दवाओं का असर मेरे नस-नस में भर चुका है। ऐसे में मैं जीवनदायिनी कैसे रह पाउंगी। तटों और जंगलों के पेड़ काटने से बारिश नहीं होगी तो मुझमें पानी कहां से आएंगा, खेतों की सिंचाई कैसे होगी?  मैं जो सोंच रही हूं, जिस कारण छटपटा रही हूं आप वह क्यों नहीं सोंचते? कब सोचेंगे जब मेरी मौत हो जाएगी, फिर सोंचने से क्या होगा? क्या कोई भागीरथ नहीं है जो मुझे प्रदूषण, जहरीली खेती की दवाओं, कारखानों के गंदे पानी से बचा सके। क्या कोई ऐसा नहीं है जो मेरे पैरों में बेड़ी डालने वालों को रोक सके। मैं गोमती अपने भागीरथ के इंतजार में हूं।  कब पूरी होगी मेरी प्रतीक्षा..... 

*हरिओम त्रिवेदी
मो. रायटोला, कसबा खुटार जिला - शाहजहांपुर
 
hariomreporter1@gmail.com
मो. 9473972828, 9935986765

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