वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Apr 13, 2020

कोरोना डायरी- हैज़ा का दारोगा

कृष्ण कुमार मिश्र की #CoronaDiary में नई कहानी हैज़ा का दारोगा....

कोरोना तो बच्चा है....
कोरोना डायरी की इन कहानियों अपनी खूबसूरत आवाज़ से सजाया है डिकोड एक्ज़ाम स्टूडियो से अमित वर्मा ने इस कहानी को सुनने के लिए रेडियो दुधवा लाइव के इस लिंक पर जा सकते हैं

कहानी कुछ इस तरह है कि बंगाल का अकाल हो या हैज़ा जैसी बीमारी हमने दुर्भिक्ष के दिन अतीत में देखे हैं, और उन बुरे दिनों पर फतह भी हासिल की है, मौजूदा वक़्त में सारी दुनिया क्वारंटाइन की बात कर रही है, मगर हम हमेशा क्वारंटाइन में थे ...उपनिवेशवाद ने हमें हमारे घरों से बाहर निकाल दिया और मर्यादाओं से भी. .हमारे पुरखे समंदर की भी वंदना करते थे और उस समंदर पर सवार होकर दुनिया को लूटने की मंशा क़भी उन्होंने नही रखी, गंगा पार वालों की दुनिया उनकी अपनी थी तो जमुना पार वालों की अपनी, हमने कभी दुनिया के जुग्राफिया और इतिहास पर अमल नही किया, हमारा जुग्राफ़िया हमारे खेत गांव तालाब खलिहान और बाग बगीचे की सीमाएं ही होती थी, हमने अपने पीपल बरगद ग्राम देवता पूजे पुरखों का इतिहास याद किया, हमने लिखने में कम यकीन रखते थे कंठस्थ करने में ज्यादा,  और उतार लेते थे चरित्र में. .हमने झेलम पार नही की भले सिकन्दर भारत जीतने आया हो और झेलम को पार कर गया पर लौटते वक्त मरते वक़्त भी खाली हाथ था.. सिंधु को पार करने वाले लोगों का भी कुछ हस्र ऐसा ही था, कोलम्बस जब समंदर की लहरों पर सवार होकर नई दुनिया की खोज में अमरीका पहुंचा तो वह योरोप की ख़तरनाक बीमारी सिफलिश वहां के लोगों को दे आया, और लौटते हुए ले आया तम्बाकू जैसा जहर, और फिर वह जहर सारी दुनिया में बटा.... दुनिया के तिलिस्म में दौलत की चाह रखने वाले साम्राज्यों ने समंदर के रास्ते छोटे कर लिए नहरे निकाल कर, ऐसी ही एक नहर है स्वेज जो मिस्र के इलाके में समुंद्री रास्तों को जोड़ती जो केप ऑफ होप पर्वत से होकर गुजरती है, इस स्वेज ने योरोप से आने वालों को जो महीनों लगाते थे अफ्रीकी महाद्वीप का चक्कर लगाकर वो भारत के कलकत्ता बंदरगाह पहुंचते थे, वे स्वेज़ नहर के बनने से मुंबई बंदरगाह पर बहुत कम दिनों में पहुंचने लगे, आपको पता है कि हमने कभी नहरे नही बनाई, हम प्राकृतिक रूप से नदियों को ही पूजा वंदना करते आए हैं, वही हमारी जीवन रेखाएं हैं...दरअसल इंसानी समाज के बनाए व्यापारिक मार्ग ही शैतानी ताकतों को भी हम तक लाते हैं पगडंडियां क़भी ऐसा नही करती...हमने जब तक अपनी आदिम पगडंडियां नही छोड़ी तब तलक हम सुरक्षित रहे, ये पगडंडियां सहचर्य की निशानी थी चार पाए और दो पाए वाले जीवों के लिए, आसमान परिंदों का साम्राज्य और समंदर मछलियों का..  यहां कोई डिवाइडर नही थे, न ही टू लेन या सिक्स लेन, यहां एक तरफ से सब चलते थे और राह खाली होने पर दूसरी तरफ, भीड़ और एक्सीडेंट का कोई मसअला ही न था, अब ये राज मार्ग ही है वह चाहे समंदर के हो या आसमान के या फिर जमीन दुनिया को जोड़ते ये इंसानी रास्ते हमें तबाही भी लाते है, या यूं कह लो तबाही ही लाते है फिर चाहे वे फ़ारस के लड़ाकू हो या इंग्लैंड और फ्रांस जापान की साम्राज्यवादी ताकतें... इन्ही रास्तों से आई...स्वेज तो एक बानगी भर है...
कुछ ऐसे ही कोरोना हम तक पहुंचा इन हवाई और जलीय राजमार्गों से गुजरते हुए, उसने दुनिया के चक्कर लगाए, उसे स्वेज जैसा शॉर्टकट भी मिला होगा हम तक पहुंचने में...पर आप को बता दूं हमारे पुरखों ने हैज़ा जैसी महामारी झेली अकाल की भूख झेली, विदेशी साम्राज्यवाद को भुगता लेकिन मज़ाल है कि हमारी आतिशी तासीर के आगे ये शैतानी ताकते टिकी हो, कोरोना तो बच्चा है.....

बात आज़ादी के आसपास की है, हैज़ा जैसी बीमारी अठारवीं सदी में तमाम बार महामारी बनी भारत के बंगाल से उपजी यह महामारी व्यापारिक व राजमारर्गो से होते हुए मध्य एशिया योरोप, अमरीका तक पहुंची, उन्ही दुर्दिन के दिनों में हमारे गांवों के इलाकों में यह हैज़ा आक्रमक हुआ, बापू भारत को एकीकृत कर रहे थे आज़ादी के लिए, और भारत जूझ रहा था भुखमरी और हैज़ा तपेदिक जैसी बीमारियों से, मेरे गांव मैनहन में भी घटित हुआ ये सब, दादी बताती थी, की उनके देवर यानी मेरे बाबा के भाई  को हैज़ा यानी कालरा के बैक्टीरिया ने संक्रमित किया, वो बीमार पड़े, उस जमाने मे कोई इलाज़ न था, और अस्पताल भी ब्रिटिश राज में मीलों दूर, जहां कोई एक कम्पाउडर नियुक्त होता था, घरेलू उपचार और ईश्वर के नाम पर किए गए टोटकों के मध्य ज़िंदगी और मौत की लड़ाई लड़ता था आदमी, जीत गया तो सब ठीक नही तो मौत के बाद भी ज़लालत.. कुछ ऐसा ही हो रहा था उन दिनों, हैज़ा में मरे हुए व्यक्ति की लाश को दूसरे गांवों के लोग अपने गांव से गुजरने नही देते थे, मौत का तांडव ऐसा होता था कि गांवों में एक मरीज की मौत होती और वह नदी में उसकी लाश प्रवाह कर लौटते तब तक किसी और कि मौत हो जाती....ऐसी महामारियों में हमने सुना है कि अग्नि को समर्पित करने के बजाए जल को समर्पित कर देना लोग उचित समझते थे.  यहां भी जल अग्नि से जीत रहा होता था, जबकि हैज़ा का जीवाणु इसी जल से व्युत्पन्न माना गया और यही जल उसका घर हुआ करता था.. .  खैर उस महामारी में मेरे बाबा के भाई जूझते रहे, हैज़ा का मरीज 12 घण्टे भी जीवित रह जाए तो बड़ी बात...पर उस वक्त के लोगो की जिजीविषा भी अप्रतिम थी, बाबा एक दिन और एक रात गुजार ले गए, हैज़ा से संघर्ष करते हुए, उसी बीच घर का कोई सदस्य मीलों दूर स्थित अस्पताल के लिए रात को रवाना हुए, जहां डाक्टर के नाम पर एक भारतीय कम्पाउडर ही रहा करता था, उस कथित डाक्टर के इंतज़ार में सुबह हो गई, और बाबा ने प्राण त्याग दिए, उन्हें जल में विसर्जित करने के इंतजामात शुरू हुए, और कहते हैं तभी उनके जिस्म ने फिर से स्वास लेना शुरू ए कर दिया....ये कौतूहल था और करुण खुशी का मंजर भी, लेकिन उनकी सांस बहुत देर तक न टिक सकी, वह डाक्टर आया लेकिन उनकी दूसरी मौत के बाद.....

अब यहां से आपको पगडंडियों से होते हुए चारमील दूर अपने ननिहाल मुरई ताजपुर लिए चलता हूँ, तमाम बार इस  महामारी को देख चुका हमारा जनमानस अब बहुत करीब हो चुका था इस हैज़ा से उसने रिश्ते बना लिए थे हैज़ा से, जैसे चेचक से बनाए थे, चेचक जैसी भीषण बीमारी को हमारे लोगों ने देवी का तमगा पहना दिया था, तो हैज़ा के भी विभाग बना दिए और उस विभाग के दारोगा भी बने, हैज़ा भी पूजा जाने लगा ग्राम देवता की तरह हमारे गांवों के वटवृक्षों और चबूतरों पर उसके भी भजन कीर्तन गाए जाने लगे, ऐसा ही कुछ था हमारे ननिहाल में, अम्मा बताती थी बड़े गर्व से की उनके दादा के पिता जी हैज़ा विभाग में दारोगा थे, मैं पूंछता अम्मा ऐसा तो कोई विभाग नही, फिर दारोगा कैसे? तो वह बताती थी...जो अब धुंधला सा याद है...कि गांव के कुछ लोग और मेरी अम्मा के दादा कहीं से आ रहे थे, धुंधलका हो चुका था, तभी उन्हें एहसास हुआ कि कुछ लोग लाठी लिए हुए उनके पीछे चल रहे हैं.....सहमे हुए वे लोग लंबे डगों से गांव की तरफ बढ़े, तभी उन पीछा करने वालों में से उनके सरदार ने कहा कि फला व्यक्ति के घर मत जाना उनके पिता हमारे दारोगा हैं...वे सब गांव पहुंचे और उसी रात उन गांव वालों के एक परिवार में एक व्यक्ति की हैजे से मृत्यु हो गई, कई दशकों में हैजे के बहुत से प्रकोप हुए गांव में ऐसी तमाम घटनाओं के बावजूद भी मेरे ननिहाल में हैजे की बीमारी किसी को नही आई....तबसे गांव में एक कहावत हो गई कि इस परिवार के पुरखे हैज़ा में दारोगा है....गांव के लोग यह भी कहते थे कि मेरे नाना के पिता यानी अम्मा के दादा जब शाम ढले कहीं बाहर से गांव आते तो हैज़ा के सिपाही उन्हें गांव भेजने आते थे, क्योंकि उनके पिता जो सशरीर अब नही थे, हैज़ा के दारोगा थे, और फिर गांव वालों ने उनका एक पवित्र स्थान गांव में स्थापित कर दिया एक पीपल के वृक्ष तले और त्योहार और शादी विवाह में वह स्थान पूजा जाने लगा...गांव की महिलाएं प्रत्येक मांगलिक कार्यक्रमों में ग्राम देवताओं की पूजा अर्चना के साथ मेरी माँ के घर की देहरी भी पूजती ताकि उन गांव वालों के घर परिवार के लोग हैजे से सुरक्षित रह सकें....मैं इस कहानी पर सवाल खड़ा करता तो अम्मा हँस के कहती भैया हम क्या जाने गांव के सब लोग यही कहते हैं.....यह कहानी भले कहानी लगे, पर सच इसी में छुपा हुआ है और इसलिए कोरोना बच्चा है, 


इस कहानी में छुपा हुआ है राज आप के जिस्म की किलेबंदी होना बीमारियों के इन इब्लीशों से जिन्हें विषाणु, जीवाणु और कीटाणु कहते हो आपलोग, अम्मा के घर के लोगों ने शायद क्वारंटाइन कर रखा हो इस बैक्टीरिया को जो हैज़ा फैलाता है? कर ली हो इम्युनिटी उस राक्षस के ख़िलाफ़, या फिर प्रकृति प्रदत्त आनुवंशिकी में उन्हें ऐसा जीन मिला हो जिसकी कोडिंग उल्टे ही ख़तरनाक हो इस हैज़ा के जीवाणु के लिए, अतीत में झांकिए और देखिए, बहुत सी महामारी आई और चली गई, पर तमाम नस्लों, समुदायों और व्यक्तियों का कुछ भी नही बिगाड़ सकी, हम अपने धार्मिक प्रसंगों को ले तो कहते हैं, तमाम ऋषियों योद्धाओं पर तमाम घातक अस्त्रों का कोई असर नही होता था पर कुछ अमोघ अस्त्र उन्हें परास्त करने में सक्षम थे, तो यूँ मानिए की जो अस्त्र जन सामान्य का संघार करते हो, वह उन खास व्यक्ति या व्यक्तियों पर बेअसर क्यों, जाहिर है उनके शरीर ने यह इम्युनिटी विकसित की हो कि वह घातक चीज उन पर बेअसर हो जाए या फिर उन्हें यह आने पूर्वजों से आनुवंशिक तौर पर मिला हो....ज्यादा कुछ न कहूंगा कथा का ख़ात्मा करता हूँ बस हम आप सम्भल जाए और समझ ले प्रकृति के नियम उनसे मुख़्तलिफ़ होना कितना भयानक है यह मौजूदा मंजर बयां कर रहा है.  खुद को क्वारंटाइन करना क्षणिक बचाव तो हो सकता है, ऐ एकांतवास की दुहाई देने वालों.. एकान्तता अंतर्मन की बात है, जब भीड़ में भी एकांत का एहसास हो वही असल एकांत है वही क्वारंटाइन है, नाक़ि घरों में कैद हो जाना.  विज्ञान भी यही कहता है, और इसी सिद्धांत पर बनी है वैक्सीन या टीका कह लो, शब्द रचने वाले न क्या रचा है, अंग्रेजी तो नही जानता मैं, वैक्सीन का हिंदी रूपांतरण यानी टीका..? कहते है न जब हम किसी का चंदन वंदन करते है तो वह हमारा अहित नही करता, बुरी नज़र से बचाता है इसीलिए हम टीका लगाते आए हैं, फिर चाहे वह काजल का टीका हो या चंदन का या फिर चेचक, रैबीज का...टीका बचाता है बुराई से, और हमारी तासीर रही है हम इन चेचक, हैज़ा को भी देवी देवता बना ही डालते हैं और लगा देते हैं टीका भी और सुलगा देते हैं धूप लोबान भी....!

हैज़ा का दारोगा भी आप से यही कहना चाहता है, टीका बांधता है, जब हम किसी का तिलक वंदन करते हैं तो वह बंध जाता है हमसे स्नेहिल डोर से जिम्मेदारी से निष्ठा से, ऐसा ही कुछ है विज्ञान का टीका यानी वैक्सीन यह आपको नही बल्कि इस बुराई फैलाने वाले जीव को एकांतवास में बिठा देता है सम्मान से यानी क्वारंटाइन कर देता है.   फिर आप को खुद क्वारंटाइन की जरूरत नही रहती है, वह वायरस या बैक्टीरिया हिस्सा हो जाता है हमारे जिस्म का बिना नुकसान पहुंचाए और उस वायरस बैक्टीरिया की जमात हम पर हमला करना बंद कर देती है यह देखकर ये तो अपना आदमी है क्योंकि उसका अंश उस में विराजमान है, मुआमला स्टॉफ का हो जाता है, तो भाइयों और बहनों ये मसअला है वैक्सीन का.   

खैर अब चलूं नई कहानी के घर पहुंचना है ताकि सुना सकूँ फिर आप को कुछ मन की उमड़ घुमड़...बस एक हिदायत के साथ कि पगडंडियों पर चलना फिर से सीख लें, क्योंकि ये आपको ले जाएगी सुंदर सरोवर की ज़ानिब, बगीचे की जानिब, खेत खलिहानों की जानिब, ये कभी भी व्यापारिक व राजमार्गों की तरह आप को मौत के मुहं में नही ढकेलेंगीं कथित विकास की इस दौड़ में. ...विचारिएगा

कृष्ण कुमार मिश्र 
संस्थापक शिवकुमारी देवी मेमोरियल ट्रस्ट एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका दुधवा लाइव
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