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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Sep 24, 2019

बंजर होती धरती- इंसानी जमातों की बेजा करतूतों का सिला


"मरुस्थलीकरण  : दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती"
                                           -  डॉ दीपक कोहली 

मरुस्थलीकरण जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्द्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। अतः जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्वास होता है।
17 जून 2019 को विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस (डब्ल्यूडीसीडी) मनाया गया। इस अवसर पर ‘लेट्स ग्रो द फ्रयूचर टुगेदर’ का नारा दिया गया। उल्लेखनीय है कि भारत में 29.3 प्रतिशत भूमि क्षरण से प्रभावित है। मरुस्थलीकरण व सूखे की बढ़ती भयावहता को देखते हुए इससे मुकाबला करने के लिए वैश्विक स्तर पर जागरूकता के प्रसार की आवश्यकता महसूस की गई। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा में 1994 में मरुस्थलीकरण रोकथाम का प्रस्ताव रखा गया जिसका अनुमोदन दिसम्बर 1996 में किया गया। वहीं 14 अक्टूबर 1994 को भारत ने यूएनसीसीडी पर हस्ताक्षर किया, जिसके पश्चात् वर्ष 1995 से मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने के लिए यह दिवस मनाया जाने लगा।
ज्ञातव्य है कि विश्व मरुस्थलीकरण दिवस के अवसर पर तीन मुख्य बातों के द्वारा मरुस्थलीकरण को रोकने के प्रयासों को प्रसारित किया जाता है। इनमें से पहला है- भूमि के अपरदन को रोकना। इसके अन्तर्गत जनमानस को जल सुरक्षा, खाद्यान्न सुरक्षा के साथ ही पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति जागरुक किया जाता है।दूसरा महत्वपूर्ण कदम सूखे के प्रभाव को प्रत्येक स्तर पर कम करने के लिए कार्य करना है, इसके तहत राहत कार्य के साथ-साथ भावी रणनीति बनाकर उस पर कार्य किया जाता है। अंतिम महत्वपूर्ण विषय नीति निर्धारकों पर मरुस्थलीकरण संबंधी नीतियों के निर्माण के साथ ही इससे निपटने के लिए कार्य योजना बनाने का दबाव बनाना है।
गौरतलब है कि विश्व का मरुस्थलीकरण क्षेत्र बिखरा हुआ न होकर दो अलग-अलग पट्टियों में विभाजित है। इसमें से एक पट्टी उत्तरी गोलार्द्ध में है और दूसरी दक्षिणी गोलार्द्ध में है। इनका विस्तार कर्क रेखा और मकर रेखा के निकट तथा अधिकांशतः 200 से 300 उत्तरी अक्षांशों के मध्य पाया जाता है। विभिन्न प्रकार की भौगोलिक स्थलाकृतियों के आधार पर मरुस्थल निम्न प्रकार के होते हैं-
वास्तविक मरुस्थलः इसमें बालू की प्रचुरता पाई जाती है।
पथरीले मरुस्थलः इसमें कंकड़-पत्थर से युक्त भूमि पाई जाती है, इन्हें अल्जीरिया में रेग तथा लीबिया में सेरिट के नाम से जाना जाता है।
चट्टानी मरुस्थलः इसमें चट्टानी भूमि का हिस्सा अधिकाधिक होता है। इन्हें सहारा क्षेत्र में हमदा कहा जाता है।
आज के दौर में तकनीक ने अपने पैर मरुभूमि क्षेत्रों में भी पसार लिया है। इन तकनीकों ने जहाँ इन स्थानों में जीवन को सम्भव बनाया है वहीं दूसरी तरफ मानव गतिविधियों के कारण मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया भी बढ़ी है। वर्तमान में समस्त विश्व के कुल क्षेत्रफल का पाँचवां भाग, यानी 20 प्रतिशत मरुस्थलीय भूमि के रूप में पृथ्वी पर मौजूद है। जबकि सूखाग्रस्त भूमि कुल वैश्विक क्षेत्रफल का एक तिहाई है।संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) द्वारा प्रस्तुत किये गये एक विशेष प्रतिवेदन में बताया गया है कि 130 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि क्षेत्र मानव की अविवेकपूर्ण क्रियाओं के कारण रेगिस्तान में बदल गया है। 
उल्लेखनीय है कि थार के मरुस्थल में प्रतिवर्ष 13000 एकड़ से अधिक भूमि की वृद्धि दर्ज की जा रही है। कुछ वर्षों बाद सहारा रेगिस्तान के क्षेत्रफल में भी एक ऐसी ही बड़ी बढ़ोतरी हो जायेगी। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे के चलते आने वाले समय में अन्न की कमी पड़ सकती है। विदित है कि आज प्रति मिनट 23 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि बंजर भूमि में तब्दील हो रही है जिसके परिणामस्वरूप हर साल खाद्यान्न उत्पादन में दो करोड़ टन की कमी आ रही है।गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है।खाद्यान्न उत्पादन के अधीन नई भूमि लाना संभव नहीं होता है और जो भूमि बची है, वह भी तेजी से क्षरित हो रही है, उदाहरण के लिए मध्य एशिया का गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को खत्म कर रही है। वहीं भारत के थार मरुस्थल ने उत्तर भारत के मैदानों को प्रभावित किया है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को मजबूर होंगे। ऐसे में मरुस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा। नतीजतन 2045 तक करीब 13 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा सकता है।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मरुस्थलीकरण भारत की प्रमुख समस्या बनती जा रही है। दरअसल इसकी वजह करीब 30 फीसदी जमीन का मरुस्थल में बदल जाना है। उल्लेखनीय है कि इसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा केवल आठ राज्यों राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी "स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019" की रिपोर्ट के मुताबिक 2003-05 से 2011-13 के बीच भारत में मरुस्थलीकरण 18.7 हेक्टेयर तक बढ़ चुका है। वही सूखा प्रभावित 78 में से 21 जिले ऐसे हैं, जिनका 50 फीसदी से अधिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण में बदल चुका है। ध्यान योग्य बात है कि वर्ष 2003-05 से 2011-13 के बीच नौ जिले में मरुस्थलीकरण 2 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। भारत का 29.32 फीसदी क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इसमें 0.56 फीसदी का बदलाव देखा गया है।गौरतलब है कि गुजरात में चार जिले ऐसे हैं, जहाँ मरुस्थलीकरण का प्रभाव देखा जा रहा है, इसके अलावा महाराष्ट्र में 3 जिले, तमिलनाडु में 5 जिले, पंजाब में 2 जिले, हरियाणा में 2 जिले, राजस्थान में 4 जिले, मध्य प्रदेश में 4 जिले, गोवा में 1 जिला, कर्नाटक में 2 जिले, केरल में 2 जिले, जम्मू कश्मीर में 5 जिले और हिमाचल प्रदेश में 3 जिलों में मरुस्थलीकरण का प्रभाव है।
देश व विश्व स्तर पर बढ़ते मरुस्थलीकरण के कारणों को समझा जा सकता है।  हवा से मिट्टी का कटाव मरुस्थलीकरण का एक मुख्य कारण है। इसका सबसे बुरा असर थार के रेतीले टीलों और रेत की अन्य संरचनाओं पर पड़ा है। उल्लेखनीय है कि तेज गति से बहने वाली हवा से मिट्टी का कटाव बहुत ही तीव्रता से होता है जिसका प्रभाव आस-पास के क्षेत्रों पर भी पड़ता है।ट्रैक्टरों के द्वारा गहरी जुताई, रेतीले पहाड़ी ढलानों में खेती, खराब कृषि सिंचाई प्रणाली, काफी समय तक जमीन को परती छोड़ने आदि से मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज होती है।
मरुस्थलीकरण बढ़ाने की प्रक्रिया में खनन कार्यों का भी अपना विशेष योगदान रहता है। दरअसल सतह की खुली खानों से जमीन के खराब होने का खतरा बढ़ जाता है। चूंकि खनन के बाद खान क्षेत्र को वैसे ही छोड़ दिया जाता है चाहे खानें भूमिगत हों या जमीन के ऊपर। स्मरणीय हो कि खुदाई से निकले मलबे को फेंकने से कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता कम हो जाती है।
प्राकृतिक वनस्पतियों का नष्ट होना मरुस्थलों के प्रसार का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण माना जाता है। एक अध्ययन से पता चला है कि 300 मिमी से कम औसत वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छे किस्म की घास तथा वनस्पतियों का ह्वास हो रहा है और यह 7 प्रतिशत से घटकर एक प्रतिशत रह गया है। दूसरी ओर 300 मिमी- से अधिक औसत वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में वनस्पतियाँ 8 प्रतिशत से घटकर 1.2 प्रतिशत रह गयी हैं।
मरुस्थलीकरण परती भूमि में छोटे-छोटे पेड़-पौधों को पशुओं द्वारा चर लेने से भी बढ़ा है। इसके अतिरिक्त इधर के वर्षों में चरागाहों के स्थान पर बड़े-बड़े मकान एवं फैक्ट्रियों को बनाने की प्रतिस्पर्द्धा चल पड़ी है नतीजतन भूमि बंजरता बढ़ी है। मरुभूमि के निरन्तर विकास होते रहने का भौगोलिक कारण भी रहा है। जैसे कम वर्षा तथा जल के वाष्पीकरण में अधिकता से भूमि की लवणता का बढ़ना, दिन तथा रात के तापमान में अधिक अंतर होने से चट्टानों का टूटना, धूल के कणों की मात्र व उनके आकार में वृद्धि होना आदि।
शहरों और औद्योगीकरण के विस्तार के चलते आज जंगल सिकुड़ रहे हैं, ऐसे में मैदान को नुकसान पहुँचने का खतरा बढ़ा है। प्राकृतिक, निर्वनीकरण, अधारणीय तरीके से लकडि़यों का ईंधन के लिये प्रयोग करना, शिफ्रिटंग कल्टिवेशन, दावानल आदि भूमिक्षरण के अन्य कारण रहे हैं।
मरुस्थलीकरण से उत्पन्न होने वाली अनेक चुनौतियां हैं मरुस्थलीकरण से प्राकृतिक वनस्पतियों का क्षरण हुआ है, साथ ही कृषि उत्पादकता, पशुधन यहाँ तक कि जलवायवीय घटनाएँ भी प्रभावित हो रही हैं।ज्ञातव्य है कि मरुस्थलीकरण के चलते पिछले दिनों भारत के उत्तर और पश्चिमी प्रदेश में धूल-भरी आंधी आयी थी। साथ ही पहली बार ऐसा देखा गया कि पहाड़ी राज्यों में भी धूल-भरी आंधी जीवन को अस्त व्यस्त कर सकती है।
मरुस्थलीकरण के कारण आज सांस, फेफड़े, सिरदर्द आदि बीमारियों की संख्या बढ़ी है। उदाहरण के तौर पर नई दिल्ली में दिन-प्रतिदिन हालत यह हो गए हैं कि वायु प्रदूषण का स्तर रिकॉर्ड तोड़ रहा है, जिससे लोगों का स्वास्थ्य और कार्य दोनों प्रभावित हुआ है।मरुस्थलीकरण आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तित कर लोगों की जीविका पर भी संकट खड़ा कर रही है। विदित हो कि मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीवन का आधार होता है।
 वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार पच्चीस सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की ऊपरी परत के नवीनीकरण में दो सौ से एक हजार साल का समय लगता है।पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो मरुस्थलीकरण के चलते मरुभूमि वाले क्षेत्र निम्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं जैसे कि भू-जल की अनियमितता तथा अत्यधिक दोहन, मृदा की गुणवत्ता में कमी, लवणता में वृद्धि, रेतीले मैदानों का क्षेत्रफल बढ़ना, पौधों की वृद्धि दर कम होना, अत्यधिक ताप व गर्मी तथा न्यूनतम आर्द्रता का होना।
मरुस्थलीकरण आज दुनिया के समक्ष एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है। भारत ने इस समस्या की गंभीरता को समझते हुए कई प्रयास किए हैं। वर्तमान में मिट्टी के क्षरण को रोकने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएँ चलायी जा रही हैं जैसे- प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाई), मुद्रा स्वास्थ्य कार्ड योजना, मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन योजना, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीकेएसवाई), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रतिबूंद अधिक फसल योजना आदि।उल्लेखनीय है कि सरकार ने इन योजनाओं में भारी मात्र में धन आवंटित किया है।इन योजनाओं के अतिरिक्त दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना और आईडब्लूएमपी (ग्रामीण विकास मंत्रालय), स्वच्छ भारत मिशन, राष्ट्रीय हरित भारत मिशन और राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) ऐसी प्रमुख योजनाएँ है, जो जमीनों के रेतीले होने, जमीनों की गुणवत्ता कम होने और सूखे की समस्याओं से निपटने के लिए काम करती है।
मरुस्थलीकरण के भावी परिणामों को समझते हुए हाल ही में पर्यावरण मंत्रालय ने वन भूमि पुनर्स्थापना (एफएलआर) और भारत में बॉन चुनौती (Bonn Challenge) पर क्षमता बढ़ाने के बारे में एक अग्रणी परियोजना लाँच की है। यह परियोजना 3-5 वर्षों की पायलट चरण की होगी, जिसे हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैण्ड तथा कर्नाटक में लागू किया जाएगा।परियोजना का उद्देश्य भारतीय राज्यों के लिए श्रेष्ठ व्यवहारों तथा निगरानी प्रोटोकॉल को विकसित करना और अपनाना तथा वन भूमि पुनर्स्थापन (एफएलआर) और बॉन चुनौती पर इन पाँच राज्यों के अंदर क्षमता सृजन करना होगा। उल्लेखनीय है परियोजना को आगे के चरणों में पूरे देश में इसका विस्तार किया जाएगा।विदित हो कि बॉन चुनौती एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जायेंगी।गौरतलब है कि वर्ष 2018 में सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण को रोकने के अगली कड़ी के रूप में संयुक्त राष्ट मरुस्थलीकरण रोकथाम कन्वेंशन (यूएनसीसीडी) के तहत चार दिवसीय (24-27 अप्रैल 2018) कार्यशाला का आयोजन किया गया। भारत में संपन्न यह क्षेत्रीय कार्यशाला दुनिया भर में आयोजित यूएनसीसीडी कार्यशालाओं की शृंखला में चौथी थी।
सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण समस्या के समाधान के लिए भूमि और पारिस्थितिकी प्रबंधन क्षेत्र में नवाचार के जरिए टिकाऊ ग्रामीण आजीविका सुरक्षा हासिल करने के लिए भी कार्य किया जा रहा है। उदाहरण के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने आजीविका स्तर सुधारने के लिए भूमि, जल और जैव विविधता का संरक्षण और प्रबंधन किया। सरकार के इन्हीं प्रयासों के तहत अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 19 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है तथा दूरसंवेदी उपग्रहों के जरिये जमीन की निगरानी की जा रही है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा बड़े खतरे हैं। जिससे दुनिया भर में लाखों लोग, विशेषकर महिलाएँ और बच्चे प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे में इस समस्या का तत्काल समाधान आज वक्त की माँग हो गई है। चूँकि इस समाधान से जहाँ भूमि संरक्षण और उसकी गुणवत्ता बहाल होगी, वहीं विस्थापन में कमी आयेगी, खाद्य सुरक्षा सुधरेगी और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलने के साथ वैश्विक जलवायु परिवर्तन से संबंधित समस्याओं से निजात मिल सकेगा। इस संदर्भ में देखा जाए तो संयुक्त राष्ट्र संघ व भारत सरकार के प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन फिर भी उपलब्धियाँ नाकाफी रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में  कुछ सुझावों को अमल में लाया जा सकता है।
धरती पर वन सम्पदा के संरक्षण के लिए वृक्षों को काटने से रोका जाना चाहिए इसके लिए सख्त कानून का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही रिक्त भूमि पर, पार्कों में सड़कों के किनारे व खेतों की मेड़ों पर वृक्षारोपण कार्यक्रम को व्यापक स्तर पर चलाया जाए। जरूरत इस बात की भी है कि इन स्थानों पर जलवायु अनुकूल पौधों-वृक्षों को उगाया जाए।मरुस्थलीकरण से बचाव के लिए जल संसाधनों का संरक्षण तथा समुचित मात्र में विवेकपूर्ण उपयोग काफी कारगर भूमिका अदा कर सकती है। इसके लिए कृषि में शुष्क कृषि प्रणालियों को प्रयोग में लाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
मरुभूमि की लवणता व क्षारीयता को कम करने में वैज्ञानिक उपाय को महत्व दिया जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतः उत्पन्न होने वाली अनियोजित वनस्पति के कटाई को नियंत्रित करने के साथ ही पशु चरागाहों पर उचित मानवीय नियंत्रण स्थापित करना चाहिए। मरुस्थलीकरण व सूखा से मुकाबला करने के लिए विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस, वैश्विक स्तर पर जन-जागरूकता फैलाने का ऐसा प्रयास है , जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग की अपेक्षा की जाती है। विश्व बंधुत्व की भावना के साथ इसमें भागीदारी सुनिश्चित करना धरती तथा पर्यावरण को बचाने में सार्थक प्रयास साबित हो सकता है।
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प्रेषक : डॉ दीपक कोहली, 5/104, विपुल खंड,  गोमती नगर,  लखनऊ -226010
 ( उत्तर प्रदेश) ( मोबाइल- 9454410037)

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