वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Oct 12, 2018

वायु प्रदूषण और वनस्पतियाँ



-डाॅ0 दीपक कोहली-

मानव के जीवित रहने के लिए जिस तरह भूमि, जल एवं वायु आवश्यक है, उसी तरह वनस्पतियाॅ और अन्य प्राणी भी जरूरी है। प्राकृतिक जीवन का यह सम्पूर्ण तन्त्र एक विशाल मशीन की भांति है जिसमें छोटे से छोटा पेंच और पुर्जा उसके सुचारू कार्य-संचालन के लिए बड़े अवयवों की भांति ही महत्वपूर्ण है। जरा सी खराबी से सारी मशीन और उसकी प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है। इसी प्रकार प्रकृति का भी हर जीव अर्थात पेड़-पौधे, प्राणी कीट-पतंगे, पक्षी आदि सभी प्रकृति के आवश्यक एवं अपरिहार्य अंग हैं। किसी भी कारण पौधों या प्राणियों को कोई नुकसान पहुॅचता है तो इसके दुष्परिणाम सृष्टि के सारे क्रिया-कलापों में महसूस किये जाते हैं।

वायुमण्डल में पाई जाने वाली समस्त गैसें एक निश्चित अनुपात में होती हैं। कुछ अवांछनीय तत्वों के प्रवेश से इस अनुपात में असन्तुलन आ जाता है तो यह जीवधारियों के लिए घातक हो जती हैं। इस असन्तुलन को ’वायु-प्रदूषण’ की संज्ञा दी गई है। जल और मृदा प्रदूषण की अपेक्षा वायु प्रदूषण विशेष हानिकारक होता है, क्योंकि यह क्षेत्रीय नहीं जोता और कोई भी जीव अधिक समय तक श्वांस लेना रोक नहीं सकता है। मनुष्य एवं जन्तुओं की अपेक्षा वनस्पतियों वायु प्रदूषण के प्रति कई गुना संवेदनशील होती हैं।

पौधों में हानिकारक प्रभाव डालने वाले विषाक्त पदार्थों में सल्फर डाई-आॅक्साइड, नाइट्रोजन डाईआॅसाइड, ओजोन, क्लोरीन, फ्लोरीन, अमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाॅइड, परआॅक्सी एसिटल नाइट्रेट प्रमुख हैं। ये सभी प्रदूषक वनस्पतियों के विकास तथा प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में व्यवधान उत्पन्न करते हैं। धूल, धुॅआ सूर्य के प्रकाश को पत्तियों तक पहुॅचने नहीं देते तथा रन्ध्रों को बन्द कर देते हैं। जिस कारण पौधा कार्बन डाई- आक्साइड ग्रहण नहीं कर पाता एवं परिणामस्वरूप प्रकाश संश्लेषण की क्रिया अवरूद्ध जो जाती है तथा पौधे भोजन की कमी से सूखने एवं नष्ट होने लगते हैं।

प्रदूषक वनस्पतियों को कई प्रकार से क्षति पहुॅचाते हैं जिसमें ऊतक-क्षय, पर्ण-हरित की कमी, पत्तियों को जल्दी झड़ जाना एवं पत्तियों के शीघ्र परिपक्व होने से नीचे की ओर मुड़ना प्रमुख हैं। कोशिकाओं के मर जाने से पत्तियों में ऊतक क्षय के लक्षण प्रदर्शित होते हैं। सल्फर डाईआॅक्साइड, फ्लोराइड, ओजोन, परआॅक्सीएसिटिल नाइट्रेट आदि प्रदूषक सभी प्रकार के हरे ऊतकों को नुकसान पहुॅचाते हैं।
सल्फर डाई आॅक्साइड के प्रभाव से चैड़ी पत्तियों में क्रम रहित, द्विपृष्ठी तथा शिराओं के मध्य में सफेद से लेकर लाल भूस रंग, पर्णहरित की कमी तथा ऊतकक्षय एक साथ देखे जा सकते हैं। नाइट्रोजन डाई आॅक्साइड के कारण भी प्रदूषण अपेक्षाकृत अधिक होने से ऐसे ही लक्षण पैदा होते हैं। इसकी अधिक मात्रा होने पर पत्तियाॅ जल्दी झड़ने लगती है।                                                                                                                                                              

फ्लोराइड प्रदूषण के कारण कुछ विशेष प्रकार के लक्षण दिखायी देते हैं। पत्तियों के किनारे जले हुए से तथा रंग लाल होता है। किनारे के ऊतक क्षतिग्रस्त तथा मरे हुए होते हैं और उनके पास पर्णहरित की कमी भी दिखाई देती है। कुछ पौधों में ऊतकक्षय वाले हिस्से सड़कर गिर जाते हैं। पौधों की पत्तियाॅ छोटी होने लगती हैं। टहनियाॅ फैलने लगती हैं, फल कम लगते हैं और सड़ने भी लगते हैं।
ओजोन से भी पत्तियों पर विशेष प्रकार के लक्षण परिलक्षित होते हैं। ऊपरी सतह पर लाल भूरे रंग के धब्बे और लाल एवं सफेद क्षेत्र बन जाते हैं। द्विपृष्ठी ऊतकक्षय के क्षेत्र भी बनते है और पत्तियाॅ शीघ्र ही परिपक्व हो जाती हैं।  
  परआॅक्सी एसीटल नाइट्रेट से मध्योत्तर कोशिकाएॅ नष्ट हो जाती हैं। पत्तियों की नीचे वाली सतह चमकीली, चाॅदी या ताॅबे के रंग की हो जाती हैं। कुछ में ये लक्षण दोनों पृष्ठों पर होते हैं। पौधे प्रौढ़ होने लगते हैं।
इन लक्षणों के आधार पर वातावरण में प्रदूषक विशेष की उपस्थिति बताई जा सकती है। जलवायु, मृदा, जीव-जन्तु तथ मनुष्य आदि घटकों के असामान्य होने पर भी पौधे कुछ इस प्रकार के लक्षण प्रदर्शित करते हैं जिससे यह कहना कठिन हो जाता है कि क्षति के लक्षण प्रदूषण के कारण ही हैं। इसीलिए प्रदूषण के स्रोत की जानकारी होना आवश्यक हैं पौधों में प्रदूषकों की मात्रा के विश्लेषण के आधार पर प्रदूषकों की उपस्थिति का पता लगाया जा सकता है। केवल क्षति के लक्षणों के आधार पर निर्णय करना गलत हो सकता है।
प्रदूषक पौधों को दो प्रकार से प्रभावित करते हैं- प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष प्रभाव दो प्रकार के होते हैं- तीक्ष्ण और दीर्घकालीन। तीक्ष्ण क्षति वह है जिसमें कोशिका भित्तियाॅॅ असन्तुलित हो जाती हैं जिससे कोशकीय पदार्थ समाप्त हो जाता है और कोशिकायें मर जाती हैं। अधिक प्रदूषण में थोड़ी देर रहने पर ये लक्षण 24 घण्टे के भीतर ही देखे जा सकते हैं।
दीर्घकालीन लक्षण पौधों में सामान्य कोशकीय क्रियाओं के प्रभावित होने पर उत्पन्न होते हैं। पत्तियों में शनैः-शनैः पर्णहरित कम हो जाता है तथा अन्त में वह रंगहीन हो जाती है तथा तीक्ष्ण क्षति जैसे लक्षण दिखने लगते हैं। पत्तियों का जल्दी झ़ड़ जाना भी दीर्घकालीन लक्षण है, जो अल्प प्रदूषण में अधिक समय तक रहने से भी दिखाई देता है।
अप्रत्यक्ष प्रभावों में पौधों की कार्यकीय तथा जैव रासायनिक क्रियाओं में अवांछनीय परिवर्तन आते हैं जिससे पौधों की वृद्धि और विकास रूक जाता है तथा उत्पादन एवं प्रजनन पर भी प्रभाव पड़ता है। पौधे में अन्य कोई संश्लेषण की क्षमता कम होने लगती है और उपज घट जाती है। पौधों की अन्य कार्यकीय एवं जैव रासायनिक क्रियायें जैसे- श्वसन, वाष्पोत्सर्जन, रन्ध्र क्रियाएं तथा एन्जाइमों पर भी वायु प्रदूषकों का अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। परागकणों और पराग नलिका के विकास पर भी सल्फर डाई आक्साइड का बुरा असर पड़ता है।                                                                                                                                                                               
पौधों पर विभिन्न प्रकार के वायु प्रदूषकों का हानिकारक प्रभाव अलग-2 प्रकार का होता है, और पौधों की प्रतिक्रयायें भी भिन्न-भिन्न होती हैंः- 
सल्फर डाई आॅक्साइड, सल्फर युक्त प्राकृतिक संसाधनों जैसे-कोयला और खनिज तेल जलाने से पैदा होती है। ताप-विद्युत केन्द्र, पैट्रोलियम रिफाइनरी तथा खाद कारखाने इसके मुख्य स्रोत हैं। यह पौधों में मुख्यतः रन्ध्रों द्वारा पादप ऊतकों में पहुॅचती है और कोशिका-भित्ति की सतह पर जल सम्पर्क होने पर इससे गन्धक के अम्ल सल्फ्यूरस एसिड तथा सल्फ्यूरिक ऐसिड बन जाते हैं। इसलिए कोशिका रस की अम्लीयता (पीएच मान) बढ़ जाती है। क्लोरोफिल-ए सल्फर डाई आक्साइड के प्रभाव से फीयोडाटीन में बदल जाता है। इस क्रिया को ’फीयोफाइटोनाइजेशन’ कहते हैं जिसमें पर्णहिरित के अणुओं से मैग्नीशियम आयन अलग हो जाते हैं। इससे पौधे की प्रकाश संश्लेषण की क्षमता नष्ट हो जाती है।

नाइट्रोजन के आॅक्साइडों में नाइट्रिक आक्साइड एवं नाइट्रोजन डाई आक्साइड द्वारा पौधों को सबसे ज्यादा हानि पहुॅचाई जाती है। ये स्वचलित वाहनों एवं रिफाइनरियों से निकलती हैं। नाइट्रोजन डाई आक्साइड में पौधों की कम सान्द्रता मे लम्बे समय तक रहने पर किसी प्रकार के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं। इनकी अधिक सन्द्रता के कारण थोड़े समय में ही हानि के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके कारण जीव-द्रव्य भार में 25 प्रतिशत की कमी आ जाती है। नाइट्रोजन डाई आक्साइड की अधिक सान्द्रता के परिणामस्वरूप पौधों की पत्तियों की ऊपरी सतह पानी को सोखकर फूल जाती है तथा कुछ समय पश्चात् ऊतक क्षय हो जाता है। इसके कारण अवांछनीय परिवर्तन आते हैं जिससे पौधों की वृद्धि और विकास रूक जाता है तथा उत्पादन एवं प्रजनन पर भी प्रभाव पड़ता है। पौधों में अन्य कोई लक्षण दिखाई नहीं देते। प्रयोगों से यह भी ज्ञात हुआ है कि पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्षमता कम होने लगती है और उपज घर जाती है। पौधों की अन्य कार्यकीय एवं जैव रासायनिक क्रियायें जैसे-श्वसन, वाष्पोत्सर्जन, रन्ध्र और पराग नलिका के विकास पर भी सल्फर डाई आक्साइड का बुरा असर पड़ता है।

प्रकाश रासायनिक प्रदूषकों में ओजोन सबसे विषैला प्रदूषक है। प्राथमिक प्रदूषक सूर्य के प्रकाश एवं आद्रता की उपस्थिति में आपस में क्रिया कर ओजोन का निर्माण करते हैं। ओजोन के प्रभाव से पत्तियों के रन्ध्र धीरे-2 बन्द होने लगते हैं और उनके गैस-विनमय पर प्रभाव पड़ता है। रन्ध्र पूर्णतः बन्द होने के पूर्व ही ओजोन की अधिक मात्रा ऊतकों तक पहुॅच जाती है। ओजोन आक्सीकरण की क्षमता अधिक होने से भी पादप क्रियायें प्रभावित होती हैं।  

परआॅक्सीनाइट्रेट द्वितीय प्रदूषक है, जो कि स्वचलित वाहनों द्वारा उत्पन्न प्राथमिक प्रदूषकों के वायुमण्डल में कुछ रासायनिक एवं प्रकाश रासायनिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं। पौधों की पुरानी पत्तियों की अपेक्षा नई पत्तियाॅ इस के प्रति संवेदनशील होती हैं।                                                                                                                                                                                                                     
निलम्बित कणाकार (सस्पेन्डेट पार्टिकल्स) के उत्सर्जन को वनस्पति के सन्दर्भ में हानिकारक नहीं माना जाता है। जब तक कि ये अत्यधिक विषैले न हों तथा इनका अत्यधिक जमाव न हो। स्रोत के निकट सीमेंट फैक्ट्री द्वारा उत्सर्जित क्षारीय कणाकार (एल्केलाइन पार्टिकल्स) पौधों को क्षति पहुॅचाता है। सीमेन्ट के कण पत्तियों के ऊपर मोटी पर्त बना लेते हैं। जिसके कारण प्रकाश के अवशोषण में बाधा पहुॅचती है, परिणामस्वरूप स्टार्च का निर्माण नहीं हो पाता। चूने के कण भी पत्तियों के ऊपर कड़ा आवरण बना लेते है, जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में बाधा पहुॅचती है और पौधा अपनी क्षमता एवं दृढ़ता खो देता है। इसके अतिरिक्त धूल के कण भी पत्तियों के रन्ध्रों को बन्द कर देते हैं तथा पत्तियों में ऊतक क्षय के लक्षण उत्पन्न हो जाते है। लेड की अधिक मात्रा भी वनस्पतियों को प्रभावित करती है। मार्गों के किनारे पायी जाने वाली वनस्पतियों में लेड की उपस्थिति के लक्षण आसानी से दिखायी पड़ते हैं। गैसीय फ्लोराइड की अपेक्षा कणाकार फ्लोराइड कम हानिकारक होता है। फ्लोराइड कणाकार आसानी से ऊतक में नहीं पहुॅच पाते किन्तु पत्तियों मंे इनका जमाव चरने वाले पशुओं के लिए हानिकारक होता है।     
इस प्रकार स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण वनस्पतियों के लिए अत्यन्त घातक है। वनस्पतियों पर पड़ने वाले प्रदूषकों केे प्रतिकूल प्रभाव से मानव जाति भी प्रभावित होती है। प्रदूषकांे से वनस्पतियों की रक्षा करने हेतु प्रदूषक तत्वों को वातावरण में कम से कम किए जाने के अथक प्रयास किए जाने चाहिए। ताकि हम अपनी वानस्पतिक जैव विविधता को संरक्षित कर सकंे।                                                                                        

 डाॅ0 दीपक कोहली- लेखक वन्य जीव सरंक्षण के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश शासन में  उप सचिव के पद पर वन एवं वन्य जीव विभाग में कार्यरत हैं, निवास राजधानी लखनऊ में इनसे आप ईमेल के जरिये deepakkohli64@yahoo.in पर अथवा पत्राचार के माध्यम से 5/104, विपुल खण्ड, गोमती नगर लखनऊ पिन कोड 226010 पर सम्पर्क कर सकते हैं.
         

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