वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Jan 4, 2018

वैदिक संस्कृति सभ्यता द्वारा पर्यावरण प्रदूषण का समाधान


यूनान, मिश्र, रोम सब मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।।

उपरोक्त पंक्तियाँ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की गौरव गाथा का बखान करती हैं। संस्कृति के मामले में हम दुनिया के सिरमौर रहे हैं। इसका मूल वैदिक साहित्य में प्राप्त होता है। वातावरणीये पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से प्रभावित होकर आज सारा विश्व प्रदूषण को दूर करने तथा पर्यावरण स्वच्छता के वैज्ञानिक उपाय खोज रहे हैं। इस समस्या की ओर जन-जन का ध्यान आकृर्षित करने के लिए प्रत्येक वर्ष 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उससे जुड़ी संस्थाओं द्वारा प्रत्येक वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण की गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं जिनमें विश्व के पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति और प्राणियों के अस्तित्व पर बड़ा खतरा बन चुकी है। इस समस्या पर चिन्ता व्यक्त की जाती है तथा इसके समाधान की दिशा में प्रतिभागी राष्ट्रों के प्रतिनिधियों द्वारा अपने सुझाव दिये जाते हैं और रणनीति तय की जाती है। वैज्ञानिक ने पर्यावरण की शुद्धि के लिए प्रकृति को मानव की सर्वाधिक सहयोगिनी मानते हुए विशेष रूप से वन एवं वृक्षों के महत्व को स्वीकार किया है। विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद में मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व उपर्युक्त तथ्य का दर्शन कर लिया था। वैदिक संहिताओं में पर्यावरण की शुद्धि के लिए वन, वृक्ष एवं वनस्पतियों को उपयोगी मानते हुए उनके महत्व का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त वेदी में यज्ञ को पर्यावरण शुद्धि के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली व सर्वोत्तम साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसलिए वैदिक संस्कृति में प्रत्येक शुभ अवसर पर यज्ञ को अनिवार्य दैनिक कर्तव्य माना गया है। आज के इस प्राकृतिक प्रदूषण युग में वातावरण को प्रतिक्षण परिशुद्ध और पवित्र करने एवं उसे जीवनदायक बनाने तथा सुखद वर्षा के अनुकूल करने के लिए यज्ञ के द्वारा आकाशीय वातावरण शुद्धकर आकाश वर्षा द्वारा पृथ्वी को तृप्त करता है। यज्ञ से मेद्य से वर्षा होती है।
‘भूमिं पर्जन्या जिन्वन्ति, दिवं जिन्वन्त्यग्नयः’
(ऋग्वेद 1-164-51)

यजुर्वेद में उत्तम कृषि के लिए यज्ञ को आवश्यक बताया गया है। वेदों में जहाँ विश्व के लिए जीवन उपयोगी अन्य वस्तुओं का निर्देश किया गया है। वहीं वृक्ष, वनस्पति, औषधि, लता एवं वनों का भी सम्मानपूर्वक उल्लेख किया गया है। वैदिक ऋषियों ने पर्यावरण की दृष्टि से इनका महत्व समझते हुए इन्हें श्रद्धापूर्वक नमस्कार करते हुए कहा है-
‘नमो वृक्षेभ्यः’
(यजुर्वेद० 16-17)
इतना ही नहीं वृक्ष, वन एवं औषधियों का संरक्षण एवं संवर्धन करने वालों को भी ‘वनानां पतये नमः’ तथा
‘औषधीनां पतये नमः
(यजुर्वेद० 16-18 एवं 19)
कहकर नमस्कार किया गया है।
मन्त्रद्रष्टा ऋषिगण इस तथ्य को भलीभाँति जानते थे कि वृक्ष एवं लताएँ आदि जहाँ अपने फल, फूल एवं लकड़ी आदि द्वारा समृद्धि प्रदान करते हैं वहाँ शुद्ध एवं प्राणदायक वायु द्वारा पर्यावरण को भी माधुर्य गुणयुक्त बनाते हैं। अतः ऋग्वेद में कहा गया है कि वृक्ष प्रदूषण को नष्ट करते है, अतः उन्हें न काटो।
वृक्षों एवं वनस्पतियों के सम्पर्क से वातावरण को प्राणवान एवं मधुमय बना देने वाले वायु को एक मन्त्र में विष्वभेषज कहा गया है और प्रार्थना की गई है कि वह दूषित वायु को दूर करें तथा शुद्ध वायु ‘भेषजवात्’ को प्रवाहित करें-
‘अग्निः कृणोतु भेषजम्’
(अथर्व० 8-106-3)
वेद में वर्णित इस जीवनदायक भेषजवात् के मूलस्त्रोत वन एवं वृक्ष है जिनके महत्व का वेदमन्त्रों में विवरण प्राप्त होता है। पर्यावरण की दृष्टि से वृक्षों के महत्व की यह वैदिक मान्यता जैसे बाद के लौकिक संस्कृत साहित्य में भी दृष्टिगत होती है।
‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में वनस्पतियों के प्रति जिस स्नेहिल भावना की अभिव्यक्ति हुई है वह उस समय के पर्यावरण चेतना का सर्वोष्कृष्ट स्वरूप प्रस्तुत करता है। वृक्षों को पुत्र रूप से प्रतिष्ठा तथा इससे भी बढ़कर उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा का भाव प्रायः प्रत्येक पुराण में मिलता है। सर्वप्रथम महाभारत में वृक्षों को धर्मपुत्र मानकर इनके संरक्षण एवं संवर्धन को अत्यन्त श्रेयस्कर बताया गया है। महाभारत के मोक्ष धर्म पर्व में तो वृक्षों को सजीव प्राणी के रूप में वर्णित किया गया है।
वेद में पर्वतों का बहुत महत्वपूर्ण वर्णन किया गया है। पर्वत खनिज के बहुमूल्य स्त्रोत है। पर्वत वनादि के द्वारा वातावरण के स्त्रोत भी हैं। पर्वत पृथ्वी का सन्तुलन बनाए हुए हैं। ऋग्वेद में वर्णित है कि पर्वत शुद्ध वायु देकर मृत्यु से रक्षा करते हैं। अतएव पर्वतों में रक्षा की प्रार्थना की गई हैं।
वैदिक मान्यतानुसार पर्यावरण की शुद्धि का सर्वाेत्तम साधन यज्ञ है इसलिए यज्ञ को वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग माना गया है यदि यज्ञ का गूढ़-दार्शनिक अर्थ लें तो यह सृष्टि एवं मानव-जीवन ही यज्ञ है और परमात्मा इस सृष्टियाग का सर्वप्रथम होता है। अन्य वेदमन्त्रों एवं विशेष रूप से ‘पुरूषसूक्त’ में यज्ञ से ही सृष्टि की उत्पत्ति प्रतिपादित है। इसी वैदिक भावना की अनुपालना करते हुए भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि पहले प्रजापति ने यज्ञ से ही सृष्टि परम्परा को बढ़ाया, पर ही आपकी कामनाओं को पूर्ण करने वाला हो- भौतिक दृष्टि से यज्ञ वह अग्निहोत्र है जिसके अन्तर्गत घी एवं सामग्री की आहुतियां पवित्र वेदमन्त्रों का उच्चारण करके अग्नि में दी जाती है और अग्नि अपने में डाले गए उक्त द्रव्यों को अत्याधिक शक्तिशाली बनाकर वायु-जल-पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष में पहुँचा देता है जिससे वातावरण शुद्ध, पवित्र, सुगन्धित, प्राणदायक एवं स्वास्थ्य प्रद हो जाता है। अतः वैदिक सिद्धान्तानुसार अग्निहोत्र ही पर्यावरण की समस्या का सर्वाेत्तम एवं सरलतम समाधान है। अग्निहोत्र का आधारस्तम्भ अग्नि है। यही अग्नि सूर्य के रूप में प्रकाश एवं उष्णता प्रदान करता है और अपनी तीक्ष्ण किरणों से समस्त दूषित पदार्थों व मल-मूत्रादि को सूखाकर पर्यावरण को स्वच्छ, रोगाणुरहित, स्वास्थ्यप्रद एवं जीवन को उपयोगी बनाता है।

इस वेदमन्त्र में
‘इंद हविर्यातुधानान् नदी फैनामिवावहत्’
(अथर्व० 7-8-2)
कहकर रोगाणुओं को नष्ट करने के विषय में कहा गया है। पर्यावरण के प्रदूषण का कारण यह है कि आज प्रत्येक व्यक्ति किसी ने किसी प्रकार से पर्यावरण को दूषित करता है। किन्तु पर्यावरण की शुद्धि एवं संरक्षण का उपाय की ओर किसी का ध्यान नहीं है। वाहनों से निकलने वाला धुंआ एवं कारखानों से निकलने वाला धुंआ तथा अपशिस्ट पदार्थ पर्यावरण को दूषित करते हैं। अतः यदि विश्व को आज प्रदूषण के भंयकर विनाश से बचाना है तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य व्यवस्था करनी होगी कि हम प्रतिदिन जितना प्रदूषण फेलाते हैं उतना ही उसे दूर करने के लिए भी यत्किंचित् प्रयास अवश्य करें। वैदिक ऋषियों की दृष्टि जब हजारों साल पूर्व इस ओर गई थी और उन्होंने पर्यावरण की समस्या के समाधान के लिए प्रतिदिन प्रत्येक गृहस्थ के लिए यज्ञ को दैनिक कृत्य के रूप में अपनाने का विधान किया था। दैनिक यज्ञ के अतिरिक्त वेद में दर्षपौर्णमास एवं ऋतुओं के अनुसार किए जाने वाले यज्ञों का भी विधान है जिससे कि ऋतु परिवर्तनों के अवसर पर होने वाले प्रदूषण एवं रोगों के फैलाव को दूर किया जा सके-

ऋतवस्ते यज्ञं वितन्वन्तु।
वयं देवा नों यज्ञमृतुथा नयन्तु।।

वैदिक मन्त्रों से ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक ऋषियों ने पर्यावरण की समस्या के समाधान हेतु गम्भीर चिन्तन किया था और मानव एवं विश्व के कल्याण के लिए पर्यावरण को जीवनोपयोगी बनाने के साधनाभूत यज्ञों का एक वैज्ञानिक विधि के रूप में आविष्कार किया था। यज्ञ की इसी महत्ता के कारण मन्त्र में उसे ‘अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः’ कहकर विश्व के केन्द्र के रूप में महिमा मण्डित किया गया है। आज यद्यपि पर्यावरण की स्वच्छता के वैज्ञानिक उपाय भी किए जा रहे हैं, किन्तु एक तो वे उपाय अत्यन्त व्यय साध्य है और दूसरे वे सर्वजन सुलभ भी नहीं है। अतः पर्यावरण की समस्या के समाधान के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम, सरलतम एवं सर्वजन-सुलभ-साधन है। इसके अतिरिक्त याजक वेदमन्त्रों में यज्ञ करते समय अन्तरात्मा से विश्व के कल्याण एचं विश्व शान्ति की जो कामना करता है। वेदमन्त्रों का स्वर सहित मधुर गायन ध्वनि प्रदूषण को दूर करके वातावरण को सौम्य, शान्त एवं आहलादक बनाता है।

पर्यावरण की शुद्धि के लिए अग्नि में गोघृत, पीपल, गूगल आदि औषधियों की आहुति का विधान वेदमन्त्रों में मिलता है। यदि हम वैदिक साहित्य में वार्णित वन सम्पदा एवं यज्ञ आदि के अनुरूप अपनी दैनिक वैदिक संहिताओं में पर्यावरण की शुद्धि के वन वृक्ष एवं वनस्पतियों तथा यज्ञ को पर्यावरण के लिए सर्वाधिक प्रभावशाली व सर्वोत्तम साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। यदि हम वैदिक साहित्य में वर्णित वन सम्पदा एवं यज्ञ आदि के अनुरूप अपनी दैनिक क्रियाओं का सम्पादन करें तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव विश्व में सर्वत्र व्याप्त होगा।
उपसंहार- आज आधुनिकता के युग में मानव का सामाजिक एवं चारित्रिक ह्रास हो रहा है जो गम्भीर चिन्ता का विषय है। आज के पर्यावरणवेत्ता केवल भौतिक दृष्टि से जल एवं वायु, ध्वनि, भूमि के प्रदूषण को दूर करने के उपाय खोजने तक की सीमित रह गए हैं जबकि इनके अतिरिक्त आज विश्व में बढ़ता हुआ वाचिक, मानसिक एवं चारित्रिक प्रदूषण और भी अधिक मानसिक अशान्ति का कारण बना हुआ है जिसके रहते हम एक अनन्त परिवेश की कल्पना नहीं कर सकते। वैदिक मन्त्र-द्रष्टाओं का ध्यान इस भयावह समस्या के इस बिन्दु पर भी गया था और उन्होंने-

‘‘वाचं वदत भद्रया वाचं ते शुन्धामि चरित्रांस्ते शुन्धामि तन्गे मनः शिव संकल्पमस्तु’’ इत्यादि
वेदमंत्रों में व्यक्ति के मानसिक, वाणी एवं चारित्रिक शुद्धि के लिए भी दिव्य प्रेरणा प्रदान की थी। इस प्रकार सार्वभौम मानव संस्कृति के आदि स्त्रोत वेदों में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टियों से पर्यावरण की शुद्धि के ऐसे साधनों का विधान किया गया है जिन्हें अपनाकर संसार में एक सुखी एवं आनन्दमय वातावरण बनाया जा सकता है। हम प्राचीन ऋषियों के मार्ग का अनुसरण करके ही इस स्नेहिल भावना को पुष्ट कर सकते हैं। तभी यह उद्घोषणा सार्थक सिद्ध होगी-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाण्यवेत्।।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1. ऋग्वेद संहिता, सातवंलकर, स्वाध्याय मण्डल, पारडी।

2. अथर्ववेद संहिता, सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, पारडी।

3. श्रीमद् भगवद् गीता, गीता प्रेस, गोरखपुर।

4. चरक संहिता।

5. ऋग्वेदीय भाष्य भूमिका।

6. यजुर्वेद संहिता, सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, औध, पारडी संवत् 1985

7. मनु स्मृति।

8. वैदिक साहित्य और संस्कृति।


अंजूलिका                                         
एम० ए० उत्तरार्द्ध (हिन्दी)                                                   
एस० एम० काॅलेज चन्दौसी                                 
                                                 
डाॅ. कादम्बरी मिश्रा
सहायक प्रवक्ता
संस्कृत विभाग
एस० एम० काॅलेज चन्दौसी (सम्भल)

डाॅ. रूपेश कुमार मिश्रा
 प्राचार्य
कुँवर कंचन सिंह महाविद्यालय,नरौली

Corresponding Author- 
Dr.ROOPESH KUMAR MISHRA
PRINCIPAL
KUNWAR KANCHAN SINGH MAHAVIDYALAYA
NARAULI, SAMBHAL
email- roopeshnbfgr@gmail.com


दुधवा लाइव डेस्क 

1 comment:

  1. Respected Sir/Madam

    Krishna Kumar Mishra

    Chief Editor

    Dudhwa Live Magazine,
    It is highly laudable that International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791 takes the pledge to fully dedicate itself to turn President Dr. Krishna kumar mishra’s dream of transforming our country into a developed nation. I would like to congratulate Dr.Krishna Mishraalso for his nice write-up on life and thoughts of Dr Mishra quoting profusely from the book I would have appreciated .

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