वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Apr 7, 2017

पृथ्वी सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं- अथर्ववेद

फोटो साभार: शादाब रजा 
              
भारतीय महिलाएँ एवं आरण्य संस्कृति (गोवर्धन यादव)

पेट की आग बुझाने के लिए अनाज चाहिए, अनाज को खाने योग्य बनाने के लिए उसे कूटना-छानना पडता है और फ़िर रोटियां बनाने के लिए आटा तैयार करना होता है. इतना सब होने के बाद, उसे पकाने के लिए ईंधन चाहिए और ईंधन जंगलॊं से प्राप्त करना होता है. इस तरह पेट में धधक रही आग को शांत किया जा सकता है. बात यहाँ नहीं रुकती. जब पेट भर चुका होता है तो फ़िर आदमी के सामने तरह-तरह के जरुरतें उठ खडी होने लगती हैं. अब उसे रहने के लिए एक छत चाहिए ,जिसमें लकडियाँ लगती है. लकडियाँ जंगल से प्राप्त होती है. फ़िर उसे बैठेने-सोने अथवा अपना सामान रखने के लिए पलंग-कुर्सियाँ और अलमारियाँ चाहिए, इनके बनाने के लिए लकडियाँ चाहिए. लकडियाँ केवल जंगल से ही प्राप्त होती है. द्रुत गति से भागने के लिए वाहन चाहिए. गाडियां बनाने के किए कारखाने चाहिए और कारखाने को खडा करने के लिए सैकडॊं एकड जगह चाहिए. अब गाडियों कि पेट्रोल चाहिए. उसने धरती के गर्भ में कुएं खोद डाले  .कारखाने चलाने के लिए बिजली चाहिए. और बिजली के उत्पादन के लिए कोयला और पानी. अब वह धरती पर कुदाल चलाता है और धरती के गर्भ में छिपी संपदा का दोहन करने लगता है. कारखाना सैकडॊं की तादात में गाडियों का उत्पाद करता है. अब गाडियों को दौडने के जगह चाहिए. सडकों का जाल बिछाया जाने लगता है और देखते ही देखते कई पहाडियां जमीदोज हो जाती है., जंगल साफ़ हो जाते हैं  बस्तियां उजाड दी जाती है, आज स्थिति यह बन पडी है कि आम आदमी को सडक पर चलने को जगह नहीं बची.

अब आसमान छूती इमारतें बनने लगी हैं  इनके निर्माण में एक बडा भूभाग लगता है. कल-कारखानों और अन्य बिजली के उपकरणॊं को चलाने के लिए बिजली चाहिए नयी बसाहट को.पीने को पानी चाहिए. इन सबकी आपूर्ति के लिए जगह-जगह बांध बनाए जाने लगे. सैकडॊ एकड जमीन बांध में चली गई. बांध के कारण आसपास की जगह दलदली हो जाती है, जिसमें कुछ भी उगाया नहीं जा सकता. आदमी की भूख यहां भी नहीं रुकती है. अब हिमालय जैसा संवेदनशील इलाका भी विकास के नाम पर बलि चढाने को तैयार किया जा रहा है. करीब दो सौ योजनाएं बन चुकी है और करीब छः सौ फ़ाईलों में दस्तखत के इन्तजार में पडी है. बडॆ-बडॆ बांध बनाए जा रहे हैं और नदियों का वास्तविक बहाव बदला जा रहा है. उत्तराखण्ड में आयी भीषण त्रासदी,और भी अन्य त्रासदियाँ, आदमी की विकासगाथा की कहानी कह रही है.


आने वाले समय में सब कुछ विकास के नाम पर चढ चुका होगा. जब पेड नहीं होंगे तो कार्बनडाइआक्साईड  और अन्य जहरीले गैसों का जमावडा हो जाएगा? फ़ेफ़डॊं में घुसने वाली जहरीली हवा का दरवाजा कौन बंद करेगा? बादलों से बरसने के लिए किसके भरोसे मनुहार करोगे ?भारत के पुरुषॊं ने भले ही इस आवाज को अनसुना कर दिया हो, लेकिन भारतीय महिलाओं ने इसके मर्म को-सत्य को पहचाना है.


इतिहास को किसी कटघरे में खडा करने की आवश्यक्ता नहीं है. वर्तमान भी इसका साक्षी है. महिलाएँ आज भी वृक्षों की पूजा कर रही हैं. वटवृक्ष के सात चक्कर लगाती है और उसे भाई मानकर उसके तनों में मौली बांधती हैं और अपने परिवार के लिए और बच्चों के लिए मंगलकामनाओं और सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थनाएँ करती है. तुलसी के पौधे में रोज सुबह नहा-धोकर लोटा भर जल चढाती हैं. और रोज शाम को उसके पौधे के नीचे दीप बारना नहीं भूलती है. तुलसी के वृक्ष में वह वॄंदा और श्रीकृष्ण को पाती हैं. उनका विवाह रचाती है. पीपल के वृक्ष में जल चढाना –उसके चक्कर लगाना और दीपक रखना नहीं भूलतीं. अमुआ की डाल पर झुला बांधकर कजरी गाती और अपने भाई से सुरक्षा और नेह मांगती है. अनेकों कष्ट सहकर बच्चों का पालन-पोषण करना, कष्ट सहना, उसकी मर्यादा है. और संवेदनशीलता उसका मौलिक गुण. यदि धोके से कोई एक छोटा सा कीडा/मकोडा उसके पैरों तले आ जाए, तो वह असहज हो उठती है और यह कष्ट, उसे अन्दर तक हिलाकार रख देता है. जो ममता की साक्षात मूरत हो, जिसके हृदय में दया-ममता-वात्सल्य का सागर लहलहाता रहता हो, वह भला क्योंकर जीवित वृक्ष को काटने की सोचेगी ?.

उद्दोगपतियों को कागज के ,निर्माण के लिए मोटे,घने वृक्ष चाहिए, लम्बे सफ़ेद और विदेशी नस्ल के यूक्लिप्टिस चाहिए और अन्य उद्दोगों के लिए उम्दा किस्म के पेड चाहिए., तब वे लाचार-हैरान-परेशान,- गरीब तबके को स्त्री-पुरुषॊं को ज्यादा मजदूरी के एवज में घेरते हैं और वृक्ष काटने जैसा जघन्य अपराध करने के लिए मजबूर करते है. मजबूरी का जब मजदूरी के साथ संयोग होता है तो गाज पेडॊं पर गिरना लाजमी है. इनकी मिली-भगत का नतीजा है कि कितने ही वृक्ष रात के अन्धेरे में बलि चढ जाते हैं. इस प्रवृत्ति के चलते न जाने कितने ही गिरोह पैदा हो गए हैं,जिनका एक ही मकसद होता है –पॆड काटना और पैसा बनाना. अब तो ये गिरोह अपने साथ धारदार हथियार के साथ पिस्तौल जैसे हथियार भी रखने लगे हैं. वन विभाग के अधिकारी और गस्ती दल,सरकारी कानून में बंधे रहने के कारण, इनका कुछ भी बिगाड नहीं सकते. केवल खानापूर्ति होती रहती है. यदि कोई पकडा भी गया, तो उसको कडी सजा दिए जाने का प्रावधान नहीं है. उसकी गिरफ़तार होते ही जमानतदार तैयार खडा रहता है. इस तरह वनमाफ़िया अपना साम्राज्य फ़ैलाता रहता है. देखते ही देखते न जाने कितने पहाडॊं को अब तक नंगा किया जा चुका है. आश्चर्य तो तब होता है कि इस काम में महिलाएं भी बडॆ पैमाने में जुड चुकी हैं,जो वृक्ष पूजन को अपना धर्म मानती आयी हैं. यह उनकी अपनी मजबूरी है,क्योंकि पति शराबी है-जुआरी है-बेरोजगार है-कामचोर है, बच्चों की लाईन लगी है, उनके पॆट में भूख कोहराम मचा रही है, अब उस ममतामयी माँ की मजबूरी हो जाती है और माफ़ियों से जा जुडती हैं.

एक पहलू और भी है तस्वीर का दूसरा एक पहलू और भी है और वह है त्याग, बलिदान और उत्सर्ग का. पुरुष का पौरुष जहाँ चुक जाता है, वहीं नारी “रणचंडी” बनकर खडी हो जाती है .इतिहास के पृष्ठ, ऎसे दृष्टान्तो से भरे पडे हैं. नारी के कुर्बानी के सामने प्रुरुष नतमस्तक होकर खडा रह जाता है. जहाँ नारी अपने शिशु को अपने जीवन का अर्क पिलाकर उसे पालती-पोसती है, अगर जरुरत पडॆ तो अपने बच्चे को दीवार में चुनवाने में भी पीछे नहीं हटतीं. पन्ना धाई के उस बलिदानी उत्सर्ग को कैसे भुलाया जा सकता है.? जब मर्द फ़िरंगियों की चमचागिरी में अल्मस्त हो,अथवा आततायियों के मांद में जा दुबका हो, तो एक नारी झांसी की रानी के रुप में उसकी सत्ता को चुनौतियाँ देती हुई ललकारती हैं.और इन आततायियों के विरुद्ध शस्त्र उठा लेती है.
पर्यावरण की रक्षा को महिलाओं ने धार्मिक अनुष्ठान की तरह माना है और अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत किए हैं. “चिपको” आन्दोलन आखिर क्या है?. उसने पूंजींवादी व्यवस्था, शासनतंत्र और समाज के तथाकथित टेकेदारों के सामने जो आदर्श प्रस्तुत किया है ,वह अपने आपमें अनूठा है. जब कोई पेड काटने आता है, तो वे उनसे जा चिपकती है, और उन्हें ललकाराते हुए कहती हैं कि पेड के साथ हम भी कट जाएंगी,लेकिन इन्हें कटने नहीं देंगी. लाल खून की यह कुर्बानी देश के लाखों-करोडॊं पेडॊं की रक्षार्थ खडी हुई. यह एक अहिंसक विरोध था और इन अहिंसा के सामने उन दुर्दांतों को नतमस्तक होना पडा. ऎसी नारियों का नाम बडी श्रद्धा के साथ लिए जाते हैं. वे हैं करमा, गौरा, अमृतादेवी, दामी और चीमा आदि-आदि. पेडॊं के खातिर अपना बालिदान देकर ये अमर हो गई और समूची मानवता को संदेश दे गई कि जब पेड ही नहीं बचेगा, तो जीवन भी नहीं बचेगा. इस अमर संदेश की गूंज आज भी सुनाई पडती है.


विश्नोई समाज ने पर्यावरण के रक्षा का एक इतिहास ही रच डाला है. पुरुष-स्त्री, बालक-बालिकाएं पेडॊं से जा चिपके और उनके साथ अपना जीवन भी होम करते रहे थे. विश्व में ऎसे उदाहरण बिरले ही मिलते हैं. जोधपुर का तिलसणी गाँव आज भी अपनी गवाही देने को तैयार है कि यहाँ प्रकृति की रक्षा में विश्नोई समाज ने अपने प्राणॊं की आहूतियाँ दी थी. श्रीमती खींवनी खोखर और नेतू नीणा का बलिदान अकारण नहीं जा सकता. शताब्दियां इन्हें और इनके बलिदान को सादर नमन करती रहेंगी. बात संवत 1787 की है. जोधपुर के महाराजा के भव्य महल के निर्माण के लिए चूना पकाने के लिए लकडियाँ चाहिए थी. सब जानते थे कि केजडली का वनांचल वृक्षॊं से भरा-पूरा है. वहाँ के लोग पेडॊं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते है. ये पेड उनके सुख-दुख में सगे-संबंधियों की तरह और अकाल पडने पर बहुत ही उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं. लोग इस बात से भी भली-भांति परिचित थे कि वे पेडॊं कॊ किसी भी कीमत पर कटने नहीं देंगे. महाराजा ने कारिन्दों की एक बडी फ़ौज भेजी, जो कुल्हाडियों से लैस थी. उन्हें दलबल के साथ आता देख ग्रामीणॊं ने अनुनय-विनय आदि किए, हाथ जोडॆ और कहा की ये पेड हमारे राजस्थान के कल्पवृक्ष हैं. ये पेड धरती के वरदान स्वरुप हैं. आप चाहें हमारे प्राण लेलें लेकिन हम पेडॊं को काटने नहीं देंगे. इस अहिंसात्मक टॊली की अगुआयी अमृता देवी ने की. थीं.
 

वे सामने आयीं और एक पेड से जा चिपकी और गर्जना करते हुए कहा-“चलाओ अपनी कुल्हाडी....मैं भले ही कट जाऊँ लेकिन इन्हें कटने नहीं दूंगी.” उसकी आवाज सुनी-अनसुनी कर दी गई और एक कारिन्दे ने आगे बढकर उसके ऊपर कुल्हाडी का निर्मम प्रहार करना शुरु कर दिया. अपनी माँ को मृत पाकर इनकी तीन बेटियाँ वृक्ष से आकर लिपट गईं. कारिन्दे ने निर्मम प्रहार करने में देर नहीं लगाई. कुल्हाडी के वार उनके शरीर पर पडते जा रहे थे और उनके मुख से केवल एक ही बोल फ़ूट रहे थे:-“सिर साठे सट्टे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण”. इनके बलिदान ने ग्रामीणॊं के मन में एक अभूतपूर्व जोश और उत्साह को बढा दिया था. इसके बाद बारी-बारी से ग्रामीण पेडॊं से जा चिपकता और कारिन्दे उन्हें अपनी कुल्हाडी का निशाना बनाते जाता. इस तरह 363 व्यक्तियों ने हँसते-हँसते अपने प्राणॊं का उत्सर्ग कर दिया. हम जब इतिहास की बात कर ही रहे हैं तो और थोडा पीछे की ओर चलते हैं. और उस पौराणिक युग की यात्रा करते हैं ,जब प्रकृति और मनुष्य के जीवन के बीच कैसे संबंध थे.

मत्स्यपुराण में वृक्ष लगाने कि विधि बतलायी गई है.
“पादानां विधिं सूत//यथावद विस्तराद वद//विधिना केन कर्तव्यं पादपोद्दापनं बुधै//ये चे लोकाः   स्मृतास्तेषां तानिदानीं वदस्व नः ऋषियों ने सूतजी से पूछा;- ’अब आप हमें विस्तार के साथ वृक्ष लगाने की यथार्थ विधि बतलाइये. विद्वानों को किस विधि से वृक्ष लगाने चाहिए तथा वृक्षारोपण करने वालों के लिए जिन लोकों की प्राप्ति बतलायी गयी है, उन्हें भी आप इस समय हम लोगों को बतलाइए”.

सूतजी ने वृक्ष लगाए जाने के की विधि के बारे में विस्तार से वर्णण किया है. वर्तमान समय में शायद ही इस विधि से कोई वृक्ष लगा पाता है. वृक्ष लगाने वाले अतिविशिष्ठ व्यक्ति के लिए, पहले ही इसकी व्यवस्था करा दी जाती है. उनके आने का इन्तजार किया जाता है और उसके आते ही उसे फ़ूलमालाओं से लाद दिया जाता है और वृक्ष लगाते समय उन महाशय की फ़ोटॊ उतारकर अखबार में प्रकाशित करा दी जाती है. उसके बाद उस वृक्ष की जडॊं में, पानी डालने शायद ही कोई जा पाता है. नतीजन वृक्ष सूख जाता है. कोशिश तो यह होनी चाहिए कि वृक्ष पले-बढे, और लोगो को शीतल छाया और फ़ल दे सके. यदि ऎसा होता तो अब तक उस क्षेत्र विशेष में हरियाला का साम्राज्य छाया होता और न जाने कितने फ़ायदे वहां के रहवासियों को मिलते. खैर. सूतजी ने वृक्ष लगाए जाने पर किस-किस चीज की प्राप्ति होती है बतलाया है.


“अनेन विधिना यस्तु कुर्याद वृक्षोत्सवं/ सर्वान कामानवाप्नोति फ़लं चानन्त्यमुश्नुते यश्चैकमपि राजेन्द्र वृक्षं संस्थापयेन्नरः/सोSपि स्वर्गे वसेद राजन यावदिन्द्रायुतत्रयम भूतान भव्यांश्च मनुजांस्तारयेदद्रुमसम्मितान/परमां सिद्धिमाप्नोति पुनरावृत्तिदुर्लभाम य इदं श्रृणुयान्नित्यं श्रावयेद वापि मानवः/सोSपि सम्पूजितो देवैब्रर्ह्मलोके महीपते(16-17-18-19)

अर्थात:- जो विद्वान उपर्युक्त विधि से वृक्षारोपण का उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती है. राजेन्द्र ! जो मनुष्य इस प्रकार एक भी वृक्ष की स्थापना करता है, वह जब तक तीस इन्द्र समाप्त हो जाते हैं ,तब तक स्वर्ग में निवास करता है. वह जितने वृक्षों का रोपण करता है, अपने पहले और पीछॆ की उतनी ही पीढियों का उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्ति से रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है. जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओं द्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है.”(मत्स्यपुराण-उनसठवाँ अध्याय) मत्स्यपुराण में वृक्षों का वर्णण बार-बार मिलता है. इसके अलावा पद्मपुराण, भविष्यपुराण, स्कन्दादिपुराणॊं में इसकी विस्तार से विधियां बतलायी गईं है. 

“य़स्य भूमिः प्रमाSन्तरिक्षमुतोदरम/दिव्यं यश्च बूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रहमणॆ नमः(अथर्ववेद   (१०/७/३२) अर्थात “भूमि जिसकी पादस्थानीय़ और अन्तरिक्ष उदर के समान है तथा द्दुलोक जिसका मस्तक है, उन सबसे बडॆ ब्रह्म को नमस्कार है.” यहाँ परमब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार कर, प्रकृति के अनुसार चलने का निर्देश दिया गया है. वेदों के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष का सम्बन्ध एक दूसरे पर आधारित है. ऋग्वेद में प्रकृति का मनोहारी चित्रण हुआ है. वहाँ प्राकृतिक जीवन को ही सुख-शांति का आधार माना गया है. किस ऋतु में कैसा रहन-सहन हो, क्या खान-पान हो, क्या सावधानियाँ हों- इन सबका सम्यक वर्णण है. ऋग्वेद (७/१०३/७) में वर्षा ऋतु को उत्सव मानकर शस्य-श्यामला प्रकृति के साथ, अपनी हार्दिक प्रसन्नता अभिव्यक्त की गयी है. वेर्दों के अनुसार पर्यावरण को अनेक वर्गों में बांटा जा सकता है.-यथा- वायु-,जल,-ध्वनि-,खाद्य और मिट्टी, वनस्पति, वनसंपदा, पशु-पक्षी-संरक्षण आदि. स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए पर्यावरणकी रक्षा में वायु की स्वछता का प्रथम स्थान है. बिना प्राणवायु के एक क्षण भी जीना संभव नहीं है. ईश्वर ने प्राणिजगत के लिए संपूर्ण पृथ्वी के चारों ओर वायु का सागर फ़ैला रखा है. हमारे शरीर में रक्त-वाहिनियों में बहता हुआ खून, बाहर की तरफ़ दवाब डालता है, यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो शरीर की धमनियां फ़ट जाएगीं और हमारा जीवन नष्ट हो जाएगा. वायु का सागर इससे हमारी रक्षा करता है. पॆड-पौधे आक्सीजन देकर क्लोरोफ़िल की उपस्थिति में, इसमें से कार्बनडाईआक्साइड अपने लिए रख लेते हैं और हमें आक्सीजन देते हैं. इस प्रकार पेड-पौधे वायु की शुद्धि द्वारा हमारी प्राण-रक्षा करते हैं.

वायु की शुद्धि के लिए यजुर्वेद में स्पष्ट किया है . “तनूनपादसुरो विश्ववेदा देवो देवेषु देवः/पथो अनक्तु मध्वा घृतेन” (२७/१२) “द्वाविमौ वातौ वात सिन्धोरा परावतः/दक्षं ते अन्य आ वायु परान्यो वातु यद्रपः (ऋग्वेद-१०/१३७/२) यददौ वात ते गृहेSमृतस्य निधिर्हितः/ततो नो देहि जीवसे (ऋग्वेद-१०/१८६/३)
हमारे पूर्वजों को यह ज्ञान था कि हवा कई प्रकार के गैसों का मिश्रण है, उनके अलग-अलग गुण एवं अवगुण हैं, इसमें प्राणवायु भी है, जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक है. शुद्ध ताजी हवा अमूल्य औषधी है और वह हमारी आयु को बढाती है.

वेदों में यह भी कहा गया है कि तीखी ध्वनि से बचें, आपस में वार्ता करते समय धीमा एवं मधुर बोलें.
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा/सम्यश्च सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया(अथर्ववेद ३/३०/३). जिव्हाया अग्र मधु मे जिव्हामूले मधूलकम/ममेदह क्रतावसो मम चित्तमुपायसि(अथर्वेवेद१/३४/२)

अर्थात;- मेरी जीभ से मधुर शब्द निकलें. भगवान का भजन-पूजन-कीर्तन करते समय मूल में मधुरता हो. मधुरता मेरे कर्म में निश्चय रहे. मेरे चित्त में मधुरता बनी रहे..इसी तरह खाद्य-प्रदूषण से बचाव के उपाय एवं. मिट्टी(पृथ्वी) एवं वनस्पतियों में प्रदूषण की रोकथाम के उपाय भी बतलाए गए हैं.

यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमाः पंच कृष्टयः/भूम्यै पर्जन्यपल्यै नोमोSत्तु वर्षमेदसे.(अथर्ववेद-१२/१/४२)
अर्थात;- भोजन और स्वास्थय देने वाली सभी वनस्पतियाँ इस भूमि पर उत्पन्न होती है. पृथ्वि सभी वनस्पतियों की माता और मेघ पिता हैं,क्योंकि वर्षा के रुप में पानी बहाकर यह पृथ्वी में गर्भाधान करता है.
आप किसी भी ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए,सभी में प्रकृति का यशोगान मिलेगा और यह भी मिलेगा कि आपके और उसके बीच कैसे संबंध होंने चाहिए और किस तरह से हमें उसॆ स्वस्थ और स्वच्छ बनाए रखना है. शायद हम भूलते जा रहे हैं कि पर्यावरण चेतना हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा रहा है. हमने हमेशा से ही उसे मातृभाव से देखा है. प्यार-दुलार-और जीवन देने वाली माता के रुप में. जो मां अपने बच्चे को, अपने जीवन का अर्क निकालकर पिलाती हो, उसे उस दूध की कीमत जानना चाहिए. यदि हम उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे, उसका अपमान करेंगे अथवा उसकी उपेक्षा करेंगे, तो निश्चित ही उसके मन में हमारे प्रति ममत्व का भाव स्वतः ही तिरोहित होता जाएगा. काफ़ी गलतियाँ करने के बावजूद ,माँ कभी भी अपने बच्चों पर कुपित नहीं होती. लेकिन जब अति हो जाए –मर्यादा टूट जाए तो फ़िर उसके क्रोध को झेलना कठिन हो जाता है. अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए फ़िर उसे अपने बच्चों की बलि लेने में भी, कोई झिझक नहीं होती.


गोवर्धन यादव 
कावेरीनगर,छिन्दवाडा goverdhanyadav44@gmail.com

1 comment:

  1. सम्मानीय महोदयजी,
    सादर नमस्कार.
    आलेख प्रकाशन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
    आशा है, सानन्द-स्वस्थ हैं.
    भवदीय- गोवर्धन यादव.

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