वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Mar 6, 2016

क्षमा करो गौरैया...

Image Courtesy: Sue Van Coppenhagen 
संस्मरण
गौरैया और मैं -- (3)
....डा0 शशि प्रभा बाजपेयी

बात उस समय की है जब घर के नाम पर मेरे पास सिर्फ एक कमरा था और विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही भूमिकाओं का एक साथ निर्वाह करते हुए मैं अकेली ही रह रही थी। महाविद्यालय में अध्यापन कार्य से बचा हुआ अधिकांश समय मैं पी0एच0डी0 उपाधि हेतु शोध प्रबंध लेखन में समर्पित करती थी। इन दोनों के बीच आवश्यक दिनचर्या भी सम्पन्न होती थी। अपने लिए महरी और महराजिन मैं स्वयं ही थी। उस समय कमरे में ही मेरा चैका, अध्ययनकक्ष, विश्राम कक्ष सब था। बीच-बीच में शोध कार्य के सिलसिले में लखनऊ जाना पड़ता था तथा छुट्टियों में हरदोई- जहाँ मेरा पूरा परिवार था। मेरी माँ कभी-कभी परेशान होने लगती थी यह सोचकर कि मैं अकेले कैसे रह पाती हूँ और सारा कार्य करके कैसे पढ़ पाती हूँ? थकती तो नहीं? ऊबती तो नहीं? पर सच बात तो यह थी, मैं कभी अकेली थी ही नहीं। कभी अकेली रही ही नहीं, अपने कमरे में। मेरी बचपन की साथी गौरैया यहाँ भी मेरे साथ थी। जैसे ही मैंने रहने के लिए कमरे का दरवाजा खोला- वह फुर्र से उड़ी और रोशनदान से बाहर चली गयी थी, फिर थोड़ी ही देर में फिर आई और कमरे का एक चक्कर लगा छत में लगे छल्ले में बैठ गयी। ऐसा कई बार हुआ। मैंने छत के पंखे का डिब्बा ऐसे ही सील बंद रहने दिया और कोने की आलमारी में सबसे ऊपर के खाने में रख दिया। कमरे में गौरैया की उपस्थिति में छत का पंखा चलाना मेरे लिए संभव न था। उत्तर की ओर गली थी छज्जे पर जाने के लिए छोटी फटकिया थी और पूरी दीवार में बड़ी खिड़की थी। आलमारीनुमा मेज जो मेरा पूरा रसोईघर थी, मैंने इसी खिड़की से सटाकर लगा दी और गैस वगैरह सब व्यवस्थित कर दी। गौरैया अब मेरी पार्टनर थी, खिड़की, रोशनदान, दरवाजा- कहीं से भी बेरोकटोक कमरे मंे आ जाती। पूरब की ओर दीवार में आलमारियाँ बनी थीं उनमें अपना सामान और किताबें रखकर मैंने ढकने के लिए परदे डाल दिए थे। परदे वाली राॅड पर बैठना गौरैया को बहुत अच्छा लगता। वह कभी बल्ब पर जा बैठती, कभी खाने वाली मेज पर, कभी भगवान जी वाले टाँड़, पर कभी किताबों पर, बेधड़क-बेझिझक मेरी थाली से चावल खा लेती और मेरे कान के पास से फुर्र से उड़ती तो पंखो की हवा से जैसे मन पुलक उठता। मुझे कभी भी अकेलेपन का एहसास नहीं हुआ।

एक दिन जब कालेज से लौटी तो देखा चैके वाली मेज पर गैस चूल्हे पर कुछ तिनके पड़े थे। मुझे समझते देर नहीं लगी रोशनदान अब आबाद होने वाला है। गौरैया नीड़ निर्माण प्रारंभ कर चुकी है। रोशनदान पर मैंने पहले से ही कुछ दाने बिखेर रखे थे उसके खाने के लिए- पता नहीं उसने खाए कि नहीं। पर पानी का जो जुगाड़ बनाया था उसे उसने अस्वीकार सा कर दिया था और पानी हमेशा मेरी बाल्टी से ही पीती थी। हुआ यों कि मैंने सोचा कि वहीं पानी भी रख दूँ सो मैंने जुगाड़ बनाकर एक छिछला सा प्लास्टिक का डिब्बा खाली कर उसे रोशनदान में डोरी से बाँधकर इस तरह लटकाया था कि वह रोशनदान से बिल्कुल सटा रहे और मैं डोरी ढीली कर उसे नीचे उतार रोज ताजा पानी भर सकूँ। पर ये सारा सरकस बनाकर पहले ही दिन मेरी आशा निराशा में बदल गयी। गौरैया दंपति आए। एक गौरैया उस डिब्बे पर बैठी पर तुरंत ही उड़कर रोशनदान पर बैठ गयी। शायद उल्टा बैठने से उसकी पूंछ पानी से भीग गयी थी। बैठने के लिए वे डिब्बे का प्रयोग कर लेती थी, पानी के बारे में पता नहीं। सुबह मेरे उठने से पहले ही वे फुर्र हो गयी। फिर कई बार तिनके लेकर आईं-गईं। कितनी व्यस्त थीं दोनों ! मनुष्य कितना एहसान जताता है अपनी संतानों पर- ‘‘तिनका-तिनका जोड़कर बनाया है घर, तुम क्या जानों मेहनत क्या होती है’’......... आदि-आदि’ पर ये पंछी ....... तिनका-तिनका जोड़कर कैसे बनता है घर........ यही जानते हैं। अपनी सन्तानों पर कोई एहसान नहीं ......... बस उत्साह ही उत्साह !!! धन्य हो गौरैया! तुम मेरी गुरू हो।

कुछ दिन बाद मैंने देखा अब एक चिडि़या घोंसले में ही रहती और एक बाहर जाती, शायद अंडों की सुरक्षा की दृष्टि से। इसी बीच होली आ गयी और मैं हरदोई चली गयी। चार-पाँच दिन बाद वापस आई.... तो कमरा खोलते ही नन्हें-नन्हें घुँघरूओं की झनक जैसी मधुर ध्वनि मेरे कानों में पड़ी। मेरा रोम-रोम खिल गया जैसे कोई बहुत बड़ी खुशखबरी मिल गयी हो, मेरी थकान मिट गई। सामान कमरे में रखा और तुरन्त काम में जुट गयी। पहला काम था- गैस चूल्हे वाली मेज का स्थान परिवर्तन। सब्जी छौंकने से उठने वाली कड़वी भभक वाली भाप उड़कर नन्हें-नन्हें गौरैयों को कष्ट पहुँचा सकती थी। मैंने दूसरी ओर मेज लगा ली और सोच लिया कि तेज छौंक वाली कोई चीज नहीं बनानी है कुछ दिन। शाम हो चुकी थी- एकदम सुना घुँघरूओं जैसी मधुर झनक तेज हो गयी। पलक झपकते ही चिडि़या दम्पति बारी-बारी से मुँह में कोमल चुग्गा दबाए घोंसले में आ गए थे। चार नन्हीं चोंचे एक साथ खुली थीं गौरैया ने सबको जैसे गोद में समेट लिया था प्यार से, वे सब धीरे-धीरे चुप हो गए थे। प्यार से थपक कर सुला दिया था गौरैया ने अपने बच्चों को। मैं मुग्धभाव से रोज उनका प्यार से चुग्गा लाना, और चोंच में खिलाना देखती रहती। मैंने एक और काम किया था पर पूरी तरह सफल नहीं हुई। मैंने सोचा यह कोमल-कोमल कीट खिलाती है, ऐसा ही कोमल आहार दे दूँ तो शायद इन्हें इतनी भागदौड़ न करनी पड़े। मैंने दूध में चूरा भिगोकर कभी गले-गले चावल बनाकर रोशनदान पर रख दिए और फिर उत्सुकता से टकटकी लगाए रोशनदान की ओर देखती रही कि चिडि़या उसे खिलाती है या नहीं। मेरे रखे हुए पदार्थ को चिडि़या दम्पति ने स्वयं कई बार खाया पर मैंने अनुभव किया कि अपने बच्चों को वह अपने पुरूषार्थ का वही आहार खिलाते जो स्वयं चोंच में दबाकर लाते थे- कमरे की मकड़ी कीड़े तक पर जैसे मेरी ओर देखकर कृतज्ञ भाव से कहते- धन्यवाद! आपने मेरे विषय में सोचा पर मैं अपने बच्चों का पालन करने में सक्षम हूँ। चिन्ता मत करो।’- और मुस्कराकर फुर्र हो जाती। कितनी खुद्दार थी वह! गौरैया! तुम मेरी प्रेरणा हो।

नवरात्र प्रारम्भ होने वाले थे- प्रतिपदा पर कलश स्थापन व पूजन हेतु मुझे हरदोई जाना पड़ा। दो दिन बाद लौटी तो कमरे में सन्नाटा लगा। मेज पर स्टूल लगाकर रोशनदान में झांका तो बच्चे नहीं दिखाई दिए। मेरा मन बुझ सा गया- दो दिन में ही उड़ भी गए सब? नहीं इनती जल्दी उड़कर नहीं जा सकते। फिर कहाँ गए? मुझे चिन्ता होने लगी। पीछे घूमी तो अचानक मेरी निगाह बिस्तर पर गयी। अनायास ही मैं मुस्करा उठी- एक नन्हा गौरैया तह की हुई रजाई पर बैठा था और टुटुर-टुकुर मुझे ही देख रहा था। ऊपर ही दूसरा आलमारी में किताब पर बैठा था। थोड़ी देर में तीसरा भी नज़र आ गया- वह भगवान जी वाले टाँड़ पर बैठा था और चैथा...? होगा यहीं कहीं पास ही मैं सँभलकर बढ़ रही थी, किताबों की दूसरी आलमारी में वह भी नज़र आ गया। मन कर रहा था उठाकर चूम लूं, ढेर सा प्यार करूं पर मन मसोसकर रह गयी..... सुना था कि बच्चे को छू लेने पर चिडि़या उसे स्वीकारती नहीं, छोड़ देती है। मैं सोचकर ही डर गयी मन मारकर रह गयी- मैंने देख लिया था गौरैया आकर रोशनदान पर बैठ चुकी थी और किसी पुलिस वाले की तरह मुझे ही देख रही थी। चाय बनाने के लिए गैस की ओर रूख किया तो देखा टाँड़ पर बैठा बच्चा फड़फड़ाया और नन्हीं डगमग उड़ान भर मेज पर ही आकर बैठ गया। अब मैं क्या करती? मेरे बिस्तर, मेज, आलमारी- सब पर गौरैया के बच्चों का कब्जा था। अब गौरैया कमरे की मालकिन थी- और मैं किरायेदार। मैंने एक ग्लास पानी पिया और धीरे से जमीन पर ही चटाई बिछाई और हाथ का तकिया बनाकर लेट गई। थकी तो थी ही कुछ ही देर में नींद आ गई। जब आँख खुली तो साँझ हो चली थी। निगाह दौड़ाई तो चिडि़या के बच्चे उन जगहों पर नहीं थे जहाँ पहले बैठे थे। अब कहाँ गए होंगे भला? सोचते-सोचते उठी। आहिस्ते से बिस्तर उठाया, बिछाया। 

आज कुछ भी लिखने-पढ़ने का मन नहीं हो रहा था। कुछ गर्मी सी महसूस हो रही थी। ध्यान आया खिड़की तो खोली ही नहीं थी। मैं उठी और खिड़की खोली- अचानक ची ई ई ई आवाज आई। मेरा कलेजा मुँह को आने लगा... धड़कने बढ़ गयीं- देखा खिड़की पर एक बच्चा बैठा था जो मैं देख नहीं पाई थी, वह दब गया था- उसे चोट लग गयी थी मैंने उसे रूपट्टे से पकड़कर उठाया- देखा तो पंजे के पास माँस वाला भाग बहुत लाल हो गया था- छिल सा गया था। कातर भाव से मैं उसे धीरे-धीरे सहलाती जा रही थी- रोती जा रही थी.... कुछ सोचकर अचानक उठी और उसके चोट वाले स्थान पर बोरोलीन लगा दी और अपने कपोल से सटाकर क्षमा माँगते हुए उसे सहलाती रही। चिडि़या के आने का वक्त हो चला था, मैंने उसे बिस्तर पर बैठा दिया। हाथ जोड़कर पूरे मन से ईश्वर से एक ही प्रार्थना कर रही थी गौरैया के बच्चे को कुछ होना नहीं चाहिए भगवान! उसे ठीक कर दो। उससे भी महत्वपूर्ण यह कि चिडि़या उसे स्वीकार कर ले। बोझिल मन से बिना घंटी बजाए आरती की। मेरी आँखों में बार-बार आँसू आ जाते थे अपनी असहाय स्थिति पर, अपराध बोध मुझे कचोट रहा था। तभी मैं चैंकी.... घायल बच्चे ने पंख फड़फड़ाए। कुछ लुढ़कता सा उड़ा बिस्तर पर ही...... मेरे रोम-रोम में जैसे धड़कन भर गयी थी, मेरी आँखे झर-झर झर रहीं थी....... कातर दृष्टि ईश्वर से गुहार कर रही थी प्रभो! आप सर्वसमर्थ हैं। गौरैया के बच्चे को शक्ति दो! रक्षा करो उसकी।........... अचानक चीं चीं चीं चीं कई आवाजें सुनाई देने लगीं.. मैंने देखा चिडि़या रोशनदान पर आ चुकी थी- कमरे का जायजा ले रही थी। मेरी धड़कने और बढ़ीं इतनी कि मैं उनकी आवाज साफ सुन सकती थी। तभी घायल बच्चा फिर फड़फड़ाया चिडि़या दौड़कर उसके पास आ गयी। मैंने आँखे मींच लीं....... अब क्या होगा? स्वीकारेगी या नहीं। बोरोलीन की महक से तो जान ही जायेगी....... कुछ गड़बड़ है। और भी न जाने क्या-क्या सोच डाला क्षण भर में ही। फिर चीं चीं की आवाज कान में पड़ी व फुर्र से उड़ने की भी.... आँख खोली तो बच्चा वहाँ नहीं था। अपने डैनो का सहारा दे चिडि़या ने उसे टाँड़ पर बिठा दिया था। मैं खुशी के मारे फूट-फूटकर रो पड़ी थी उस समय- धन्यवाद! गौरैया तुमने मुझे अपराध बोध से उबार लिया, बच्चे को स्वीकार लिया। मिथक टूट गया था- विश्वास जीत गया था। 

मैं उठी, मुँह धोया, चाय बनाई और चाय का कप लेकर छत पर टहलकर अपने को सामान्य करने की कोशिश की, ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। मैं कमरे में आ गयी और दरवाजा बंदकर बिस्तर पर सीधी लेट गई। वह बच्चा अभी भी टाँड़ पर बैठा था। छत पर निगाहें टिकाए पता नहीं क्या-क्या सोच रही थी मैं कि अचानक लोहे के छल्लों में बैठे तीनों बच्चों पर बारी-बारी से नज़र पड़ी........ मन एकदम हल्का हो गया। परदे की राड पर कोने में गौरैया बैठी थी, दूसरी रोशनदान पर। एक बार मन में आया चोट वाले बच्चे को उठाकर देखूं पर हिम्मत नहीं पड़ी। पता नहीं इसी उधेड़बुन में कब सो गई। सुबह 7 से 10 की मीटिंग में ड्यूटी थी।

इसी तरह दो तीन दिन बीत गए। बच्चे कुछ-कुछ दूरी तक उड़ने लगे थे, चिडि़या उन्हें क्रमशः नए-नए लक्ष्य देती थी और वे उड़कर पूरा करते थे। यदि कभी लड़खड़ाते या गिरने लगते तो गौरैया पंखों का सहारा दे सम्हाल लेती थी और एक दिन........ बच्चे कमरे में वापस नहीं आए......... वे उड़ना सीख चुके थे, खुले आसमान में......... निकल पड़े थे जीवन की यात्रा में दूर कहीं अपना आशियाना बनाने की तलाश में नए नीड़ के तिनकों को चुनने के लिए। 
कमरे के रोशनदान में घोसला अभी भी था- पर उजड़ा हुआ। अब उसमें सिर्फ तिनके थे। मेज पर स्टूल लगाकर मैंने रोशनदान साफ किया। मेज अपनी जगह पर रखी। सब कुछ पहले जैसा हो गया था। पर अभी भी बच्चों की मधुर चीं चीं कभी कभी स्मृति में गूँज उठती थी। हाँ... गौरैया अब भी मेरे कमरे में आती रहती थी। उसने कोई संबंध नहीं तोड़ा था।

धीरे-धीरे उस कमरे में गौरैये के साथ रहते हुए तीन वर्ष बीत चुके थे। मेरा कमरा गौरैया का सुरक्षित मैटरनिटी होम था। वह रोशनदान में घोंसला बनाती अण्डे देती-सेती, बच्चों को पालती-पोसती- उड़ा ले जाती। मेरा कमरा गौरैया और उसके बच्चों की चहक से गुंजायमान था। पास-पड़ोस के बच्चे बड़ी जिज्ञासा व उल्लास के साथ मेरे कमरे में गौरैया के बच्चे देखने आते रहते। इसी बीच गौरैया जैसी ही एक और चिडि़या जो आकार में उससे कुछ बड़ी थी- आना शुरू कर चुकी थी। यदि गौरैये की उपस्थिति में वह आ जाती तो गौरैया असहज हो उठती और अजीब सी आवाज में उसे डांटते हुए भगा आती थी। इस साल गौरैया ने अभी तक घोंसला नहीं बनाया था। शायद काली चिडि़या ही इसका कारण थी। क्या करें काली चिडि़या का? प्रश्न करता झुंझलाया मन- परन्तु कोई उत्तर नहीं था मेरे पास।

कुछ दिनों बाद मुझे एक दिन बाल्टी में कुछ तिनके गिरे मिले। सिर उठाकर ऊपर देखा तो आलमारी में पंखे वाले डिब्बे के ऊपर अपना घोंसला बनाती गौरैया दिखाई दे गयी। शायद काली चिडि़या से सावधान रहते हुए इस बार आलमारी में घोंसला बना रही थी- गौरैया। मुझे खुशी हुई। समय बीतता गया। घोंसला बन गया, गौरैये ने फिर से 4 अण्डे दिए थे। उसकी अनुपस्थिति में मैंने उत्सुकतावश उचककर देख लिया था। अब मैं सजग रहने लगी थी। काली चिडि़या अब भी आती थी और चिन्ता की बात यह थी कि वह घोंसले पर झपट्टा मारने जैसी हरकत करती थी। मुझे पता नहीं क्यों बहुत डर लगने लगा था उन अंडों की सुरक्षा को लेकर। काॅलेज में भी कभी कभी एकदम मन उचट जाता था। वरिष्ठ प्रवक्ताएं कभी कभी चुटकी भी लेती थीं- तुम्हारे कौन से बच्चे रो रहे होते हैं जो तुम्हें घर जाने की इतनी जल्दी रहती है अकेले जी नहीं ऊबता तुम्हारा? कहीं आती-जाती भी नहीं कि जी बहल जाय। मैं उन्हें समझा देती थी कि शोध कार्य में व्यस्त हूँ। सच होते हुए यह पूरा सच नहीं था सच तो यह था कि मैं गौरैया और उसके बच्चों के मोहपाश में जकड़ी हुई थी। कक्षा खत्म होते ही खूँटा तुड़ाकर भागती गैया की तरह, तेज चाल से घर पहुँच जाती और सबसे पहला ध्यान घोंसले पर ही जाता। काफी समय से मैं घर भी नहीं गयी थी।
एक दिन जब काॅलेज से लौटी तो दरवाजा खोलते ही गौरैया का कुछ बदला-बदला स्वर सुनाई दिया वह परदे वाली राड पर बैठी जैसे मुझसे कुछ कह रही थी। मैंने पर्स रखा और कपड़े बदलकर मुँह धोने के लिए बाल्टी से पानी लेना चाहा तो अवाक् रह गयी- बाल्टी में कुछ तिनके व टूटा हुआ एक अण्डा पड़ा था, शायद काली चिडि़या ने घोंसले पर हमला किया था। अब समझ में आया चिडि़या उस बदले स्वर में यह बता रही थी। चिडि़या अब भी राड पर बैठी थी मैंने दृष्टि ही दृष्टि में उसे ढांढस बँधाया। बोझिल मन से धीरे-धीरे अपने काम निबटाते हुए भी मैं उपाय ढूंढ रही थी उस काली चिडि़या को भगाने का पर कुछ सूझा नहीं। गौरैया दंपति भी सजग थे। जैसे ही काली चिडि़या कमरे में घुसती गौरैया भी पीछे तुरंत ही आ जाती और शोर मचाती थी। कभी काली चिडि़या स्वयं भाग जाती कभी मैं भगा देती। इसी द्वन्द्व के बीच कुछ दिनों बाद फिर मेरे कानों में घुँघरूओं के छनकने जैसी मधुर चीं चीं की आवाज गूँजी। ‘दशरथ पुत्र जन्म सुनि काना’- जैसा ही आनंद हुआ मुझे। वही प्यारी दिनचर्या, नन्हीं गौरैया का स्वर- अभिभावक गौरैयों की तत्परता- शत्रु चिडि़या के आक्रमण का डर और बचने की चिन्ता में एक गौरैया हर समय कमरे में रहती।

एक दिन की बात है, 3-6 मीटिंग की ड्यूटी के बाद जब काॅलेज से लौटी तो शाम हो चली थी। मैंने कपड़े बदले, हाथ पैर धोए, आरती की, चाय बनाई और कप लेकर सीधे पढ़ाई वाली मेज के पास पहुँच गयी। चाय पीती जा रही थी और अपने शोध प्रबंध के लिपिबद्ध अध्यायों का क्रम भी ठीक करती जा रही थी। दो दिन का अवकाश था और रात में ही 3 बजे नैनीताल एक्सप्रेस से मुझे लखनऊ जाना था। मैं अपने काम में मशगूल थी। जब काम सिमटा तो ध्यान गया गौरैया बड़े अजीब स्वर में बोल रही थी लगातारः- शायद काफी देर से मुझे सुनाई क्यों नहीं दिया? मैं जल्दी से उठी देखा- परदे वाली राड पर बड़ी बेचैनी से लगातार गौरैया चिल्लाती हुई सी चल रही थी। मेरी भी बेचैनी बढ़ी। दौड़कर आलमारी की ओर बढ़ी तो देखा एक बच्चा नीचे गिरा पड़ा था। अभी तो पंख भी नहीं थे बस पंख जैसे रोंए थे। गनीमत यह थी वह जमीन पर नहीं गिरा था। जिस दिन बाल्टी में अण्डा मिला था उसी दिन से मैंने उस पर ढक्कन लगाकर एक चद्दर उस पर रख दी थी कि अगर गिरे भी तो चोट न लगे। बच्चा जीवित था मैंने उसे रूमाल से पकड़ा और घोंसले में रख दिया। वह कई बार चीं चीं बोला मेरे हटते ही चिडि़या दौड़कर उसके पास पहुँच गयी। वही मिलन जिसके आगे स्वर्ग का सुख भी तुच्छ है। थोड़ी देर में शान्ति छा गयी। शायद अपने बच्चों को कलेजे से लगाकर गौरैया सो गयी थी। मैं भी अपना सामान बैग में रखकर सो गयी अब तक रात्रि के 10 बज चुके थे।

तीसरे दिन सीधे काॅलेज ही पहुँची 11-2 तथा 3-6 दोनों मीटिंग में ड्यूटी थी। शाम को घर पहुँची। कमरे में कोई हलचल नहीं थी। कमरे में कुछ बदबू सी आई, सोचा कहीं चूहा मरा है शायद। खिड़की दरवाजे खोल दिए कि गमस निकल जाय। हाथ-पैर धोकर अगरबत्ती जला दी। इस समय चूहा ढूंढने की हिम्मत नहीं बची थी। सुबह फिर 7-10 ड्यूटी थी जल्दी सो गयी। अगले दिन जब आई तो कमरे में सन्नाटा कुछ अस्वाभाविक लगा। खैर मैं चूहा ढूंढने में लग गई। सारी चीजें हटा-हटाकर देखा कुछ नहीं मिला किताबें भी हटाकर देख लिया। अब कोने वाली आलमारी की ओर बढ़ी तो बदबू और बढ़ गयी। अचानक मेरे हाथ पैरों में बिजली सी फुर्ती आ गयी- कहीं बच्चों को तो कुछ नहीं हुआ? मेरा कलेजा धक् धक् कर रहा था। देखा घोंसले में बच्चे नहीं थे। जल्दी से डिब्बा हटाया- तो लगा गिर ही पड़ूँगी। बदबू यहीं से आ रही थी। तीनों बच्चे डिब्बे के पीछे गिरकर सड़ गए थे।

मैं थोड़ी देर स्तब्ध बैठी रही... मेरी आँखे झर रहीं थी। गौरैया रोशनदान पर बैठी थी खामोश। सब कुछ नष्ट हो चुका था उसका- कुछ नहीं कर पायी मैं। मैं आलमारी से मृत बच्चों को उठा रही थी गौरैया राड पर आकर बैठ गयी थी, पर बिल्कुल खामोश..... न कोई शिकायत.... न उलाहना..... न अपेक्षा- बिल्कुल निर्विकार सी बैठी थी वह। मुझे अपराधबोध कचोट रहा था यदि मैं न जाती शायद कुछ मदद कर पाती समय से। ऐसा तो नहीं मैं सिर्फ एक बच्चे का गिरना जान पाई थी? उसी दिन दोनों तो नहीं गिर गए थे पीछे? नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता चिडि़या अवश्य बताती वह चुप हो गयी थी तभी मैं सोयी थी। जरूर यह घटना मेरी अनुपस्थिति में घटी थी। शायद काली चिडि़या ने झपट्टा मारा होगा, बचने के लिए बच्चे पीछे सरके होंगे या झोंके से ही गिर गए होंगे। कुछ भी हो.... अब बच्चे इस दुनिया में नहीं थे। रोते-रोते ही मैं गौरैया से हाथ जोड़कर माफी माँग रही थी- क्षमा करो गौरैया! मैं तुम्हारे विश्वास की रक्षा नहीं कर सकी।
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डा0 शशि प्रभा बाजपेयी
एसो0प्रो0 हिन्दी-विभाग
भ0दी0आ0क0स्ना0म0,
लखीमपुर-खीरी
उ0प्र0 (भारत)
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