वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Apr 2, 2013

गौरैया तुम क्यों दूर हो गयी हमसे...



’’ कभी उनकी बस्तियों में मेरी किलकारियां गू़ंजतीं थीं, 
ये और बात है कि आज उनकी बदौलत ही घर से बेजार हूँ  मैं ’’...

बांदा। रस्मी अदायगी के साथ 20 मार्च 2013 को वल्र्ड स्पैरो डे ( विश्व गौरैया दिवस ) मनाने की जद्दोजहद में हम भी अपने साथियों के साथ चीं-चीं की किलकारियों को सुनने और कैमरे में कैद करने के लिए बेचैन से दिखे।

रसायनिक खेती से सरोबार खेत-खलिहान घूमें, मेड़ और पगडंडियां छानीं, घर की मुंडेर-अटारी के बीच ताक-झांक की, आंगन में एक आहट के लिए परेशान से रहे मगर घर-आंगन में उछल-कूद  करने वाली विलुप्त प्राय पक्षी गौरैया नहीं दिखी।

थक-हार कर कैमरे को यह सोंचकर कमर से कस लिया कि शायद इस बरस चीं-चीं का दीदार होना मयस्सर नहीं होगा। लेकिन मित्र मंडली के साथ सांझ ढलते ही जब बांदा जनपद की तहसील नरैनी के ग्राम गोपरा में वापसी की तैयारी में थे तभी प्राथमिक स्कूल के खिड़की में एक नन्हीं गौरैया यकीनन कैमरे में कैद हो जाने की बाट जोह रही थी। उसे देखकर मानो एक बारगी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ कि मैंने जो देखा है वो सच के करीब है। पर वो सच ही तो था जिसने मेरे बढ़ते हुए कदमों को ठिठका कर कैमरे की तरफ तेजी से हाथ बढ़ाने को अनायास ही मजबूर कर दिया। इससे पहले कि गौरैया मेरी आंखों से ओझल होती अपने कैमरे के स्क्रीन पर उसकी हरकत को कैद कर लिया। 


आखिर क्या जरूरत थी और क्यों परेशान था मैं इस नन्हीं चिडि़या को देखने के लिए। शायद उसकी आड़ में ये शब्द मेरे जहन के लब्बोलुआब को दोहरा रहे थे कि ‘‘ मैंने क्या बिगाड़ा था किसी का जो मेरे अस्तित्व को सीमित कर दिया, मैने  तो हर हालात में दुआ की थी कि तुम आबाद रहो। ’’

गौरैया चिडि़या के बायोग्राफिक पन्नों को टटोलने पर जानकारी मिलती है कि मध्यम आकार के पक्षी वर्ग से आने वाले पेसरी फाम्र्स वर्ग से संबंध रखने वाले यह घरेलु चिडि़या अपनी प्रकृति सहपूरक स्वभाव के कारण मानवीय स्वभाव में सबसे पहले एकाकार हो जाती है। कच्चे घरों के खपरैल की ओट, अटारी और मंडेर में घोसला बनाकर रहने वाली गौरैया आज अपने ही अस्तित्व को लेकर संघर्षरत है। इसका एक बड़ा कारण लगातार बढ़ते जा रहे ग्लोबलाइजेशन, मोबाइल टावर की रेडियेशन किरणें, जैविक और जीरो बजट आधारित कृषि अभाव है। पहले जहां खेतों में कम कीटनाशक दवाएं, उर्वरक डालने के चलते गौरैया खेत-खलिहानों में कीट-पतंगों को खाने के लिए आसानी से दिखाई पड़ती थी वहीं अब खेत-खलिहान को दूर छोड़कर हमारे घर-आंगन से भी ओझल होती जा रही है। यथार्थ है कि हमारे नवांकुर बच्चे और आने वाली पीढि़यां इस मासूम चीं-चीं की किलकारी सुनने से वंचित रहेगीं। गौरैया चिडि़या के अतिरिक्त बुंदेलखंड के ग्रामीण परिवेश से जुगुनू, तितली, सोन चिरैया, गिद्ध और काले हिरन भी दिन प्रतिदिन गायब होते जा रहे हैं। इनके संरक्षण के नैतिक जिम्मेदार हम और आप ही हैं। लेकिन क्या हुआ जो हमने अपने बदरंग विकास के पायदानों को ऊंचा करने के लिए गौरैया जैसे अन्य परजीवियों को दोजख में ढकेल दिया है। आखिर हम खुद को इंसान जो कहते हैं यानि ईश्वर की बनाई हुई सबसे खतरनाक कृति जो अपने जरूरतों के मुताबिक हर चीज को बखूबी अपने स्वार्थ सांचे में उतार सकती है!

पर्यावरण को सहजने और इंसानी रूहों को बचाने के लिए आवश्यक है कि हम समय रहते इन जीवों के रहे सहे घरौंदों को बचाएं और उन्हें संरक्षण देकर अपने अधिकारों के मुताबिक जीने का माकूल अधिकार प्रदान करें। 


 आशीष सागर (लेखक बुंदेलखंड में पर्यावरण एवं जनहित से बावस्ता तमाम मसायल पर पैनी नजर रखते है अपने लेखन व् सामाजिक कार्यो के चलते बुंदेलखंड के जनमानस के अतिरिक्त वहां की आबोहवा भी राफ्ता रखती है इनसे, सूचना के अधिकार क़ानून के प्रयोग  व् इसके प्रचार प्रसार में महती भूमिका, बांदा में निवास इनसे ashishdixit01@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है )

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