वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Apr 29, 2011

...हमें उनका नाम नही मालूम !


© कृष्ण कुमार मिश्र : अपने हिमालय का एक खूबसूरत फ़ूल जिसका अंग्रेजी नाम जरूर होगा पर हिन्दी ..?

एक प्रतिष्ठित हिन्दी पत्रिका की संपादिका के पत्र का जवाब ! ..जो संबधित है पक्षियों के हिन्दी नामों से !
 उन्होंने मांगे है पक्षियों के हिन्दी नाम...

महोदया
 पक्षियों के हिन्दी नाम असंभव है क्योंकि हिन्दुस्तानियों ने हिन्दी में कोई डेटाबेस तैयार ही नही किया, हम सब ने अंग्रेजों की उंगली पकड़ कर पड़ना सीखा.. ये बात आप को मालूम होनी चाहिए !..यहां पक्षियों के नाम क्या हर चीज के नाम कुछ मील चलने पर बदल जाते है, कृपया हिन्दी नाम खोजने के बजाए हिन्दी का अल्प-कालिक इतिहास देखिए और ये देखिए कि हमारी सरकारों ने हिन्दी के राष्ट्रीय करण में क्या क्या तीर मारें है! क्या हिन्दी में किसी भी एक विषय वस्तु का राष्ट्रीयकरण हुआ है.?..कोई लेखा जोखा तैयार किया गया है हमारे स्थानीय या पारंपरिक ज्ञान का...जबकि अंग्रेजी में प्रत्येक विषय पर अन्तर्राष्ट्रीय गष्ठियों में तमाम विषयों पर सेमिनार किए जाते है और फ़िर प्रोजेक्ट बनाकर उन पर कार्य...अभी हाल में ही अंग्रेजी में पक्षियों के नामकरण को वैश्विक स्तर पर सूचीबद्ध कर उनका संसोधन कर नये नामों की एक लिस्ट तैयार की गयी और उसे प्रत्येक देश के वैज्ञानिक संस्थानों में भेजा गया..ताकि आइन्दा से इसी सूचीबद्ध नामों से इन्हे पहचाना जाए.....अफ़सोस कि हमारे कुछ महान चिद्वानों ने बड़ी विषमताओं के बावजूद फ़टेहाल रहकर हिन्दी में साहित्य को लिखा जिसमें आप को विज्ञान, इतिहास व भूगोल आदि की झलकियां मिल सकत है, पर हमारे अमीर संस्थानों(सरकारी व निजी) ने इस सन्दर्भ में कोई कार्य नही किया, सिवाय अंग्रेजी में संकलित हमारे ही ज्ञान का अशुद्ध अनुवाद करने के ! साथ ही अपने आस-पास की मौजूदा परिस्थियों के लेखा-जोखा की कोई परवाह नही है...नतीजतन नई हिन्दी व अंग्रेजी भाषी पीढी १९४७ के बाद के भारत को कभी नही जान पायेगी....क्योंकि यहां सब उन  एक्स गोरे आकाओं के द्वारा तैयार बेहतरीन दस्तावेजों का ही दोहराव किया गया है बार बार...विभिन्न भौड़े तरीकों से...विभिन्न भाषाओं में.....अपने ज्ञान को अपनी भाषा में दस्तावेजीकरण का तरीका ही नही आता हमें या फ़िर हम सिर्फ़ नकल करना जानते है वो भी आउटडेटेट......काम करना नही.....।
डा० सालिम अली के अलावा कुछ अन्य लोगों ने यह प्रयास किया की पक्षियों के स्थानीय नामों का उल्लेख किया जाए...किन्तु वह अपूर्ण रहा।
भारत की सुन्दर विविधिता तो समझ आती है किन्तु ज्ञान का राष्ट्रीयकरण अपनी भाषा में न कर पाना यह समझ नही आता...अवश्य हमारी पीढी में कोई खामीं जरूर है..क्योंकि हम भेड़चाल का मज़ा लिए जा रहे है तकरीबन एक हज़ार साल से और हांकने वालों पर पूरे भरोसे के साथ...फ़िर वह चाहे गोरी चमड़ी हो या काली........!

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की वो पंक्तियां ...खूब फ़िट बैठती है मेरे उपरोक्त कथन पर ...आप भी नोट कर लीजिए...

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।


इति
कृष्ण कुमार मिश्र

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