वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Feb 6, 2011

बुन्देलखण्ड का आदिवासी और उसकी बदहाली पर एक खुला चिठ्ठा

चार सौ दलित आदिवासियो की बदहाली एवं पलायन 

"क्या वें अब जंगल और जंगल जीवों के मध्य समन्वय स्थापित कर सकते हैं ? "क्या बाघ की तरह उन्हे पिछले कई शताब्दियों से उनके घरों को उजाड़ा नही जा रहा है, ...अब बाघ के रिहैबलीटेन, उसके हक की लड़ाई के साथ साथ आदिवासियों का रिहैबलीटेशन, हक, अधिकार आदि की बात करते ये लोग आखिर ये क्यों नही समझते कि हमने ही उन्हे और उनके  बुनियादी  जरूरतो, आवासों को बरबाद किया है शनै: शनै:...... कहाँ गये वो जंगल-जंगलियां जो हमारा पोषण करते थे, हमें आसरा देते थे, आदिवासी अब एक मसला बन चुका है, आदिवासियों की इस कथित संघर्ष-गाथा ने तमाम समाजसेवियों की खेप पैदा कर दी, सरकारों और आदिवासियों की मध्य की यह लड़ाई लड़ रहे है कुछ मझौले...जिन्हे नही पता असल मामला क्या है, इन्हे पांच सितारा होटल नही चाहिए और न ही मेट्रों, ये न तो दिल्ली की बाजारों में बोझा ढों सकते है, और न ही शहरी कचरों का कचरा बीन सकते है, इन्हे राशन की दुकानों की लाइन भी बेमानी लगेगी...इन्हे चाहिए आसमानी छत, हरियाली का बिछौना, कन्द-मूल-फ़ल और वह सब जो इन्हे आज तक जंगलों में रखता आया...इन्हे प्लांटेशन नही असल जंगल चाहिए जो इनकी जरूरत पूरी कर सकते थे..क्या हम इन्हे इनका बुनियादी हक दे सकते है, इस मसले पर हमें एक विवरण भेजा है बुन्देलखण्ड से प्रवास संस्था के प्रमुख आशीष दीक्षित सागर ने.....संपादक  दुधवा लाइव"

विगत 24.03.10 को स्वयं सेवी संगठन प्रवास सोसाइटी व बुंदेलखंड गण परिषद का समूह नरैनी विधान सभा क्षेत्र के अंर्तगत समाहित ग्राम पंचायत कुरहूं, डढवामानपुर के ग्राम (गोबरी, आलमगंज, चौधरी का पुरवा, करमाडाढी, कालीडाढी, बजरंगपुर, गुबरामपुर, ऊधौ का पुरवा आदि) में अध्ययन, सर्वेक्षण हेतु गया था । एक ओर जहां राज्य व केन्द्र सरकारों के मार्फत विकास नीति, योजनाओं का बखान आकडों  में दर्ज किया जा रहा है साथ ही समाज के कमजोर, दलित व उपेक्षित वर्गो का सर्वजन हित ही आम नागरिक को जन चर्चाओं में बताया जाता है वहीं दूसरा पहलू यह है कि बुंदेलखंड में लोकतंत्र की सीधी भ्रूण हत्या नरैनी विकास खंड के बीहडों मे बसे आदिवासी परिवारो के बीच हो रही है। इनका परिदृष्य, गांव की पगडंडी, तंगहाली की एक-एक मार्मिक पीड़ा और संवेदना अंतिम पंक्ति में जीवन यापन कर रहे है इन कुनबों के बीच सहज ही देखी जा सकती है।
    विचारणीय बिंदु यह है कि अनुसूचित जनजाति के लिये सरकार ने बहुउपयोगी , समाज कल्याणकारी विचारशील आख्या के साथ कार्यक्रम चलाये है एवं नरैनी चित्रकूट क्षेत्र में तमाम स्वयं सेवी संगठन सरकारी , विदेशी सहयोग से परियोजनाये संचालित कर रहे है लेकिन पिछले 62 सालों में उनका ध्यान इन सर्वहारा आदिवासी परिवारों के समुचित विकास की तरफ क्यों नही गया एक प्रश्न चिंह है ? क्या हम सिर्फ शहर, ग्राम कस्बों की चौपालो मे संगोष्ठीयां और वर्कशाप करने के बाद अपना कर्तव्य बोध भूल जाते है, यह भी सोचने की आवश्यकता है। आज भी इन परिवारों के बच्चे-बच्चियां बुनयादी तालीम , मिड-डे मील , सर्वशिक्षा अभियान, संपूर्ण स्वच्छता अभियान एवं समेकित बाल विकास परियोजना जैसी मूल भूत विकास कार्यक्रमों से अछूते है तथा इनके बडे बुजुर्ग भी विधवा, वृद्धा पेंषन से वंचित है। इन गांवों की महिलाओं को आज तक जननी सुरक्षा योजना, आंगनबाडी केन्दो का लाभ नही मिला है यथा स्थिति के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारने वाले परिवारो के पास लाल कार्ड भी नही है। उदाहरण स्वरूप ग्राम गोबरी डढवामानपुर के निवासी जो कि मवेसी आदिवाशी है उनमें से महिला सुन्दी, तिरसिया, राजाबाई (विधवा), फूलकली, बीटोल, फूलरानी, बूटी, प्रेमा, चंन्द्रकली , सुंधी , केसिया, संती, मुन्नी , लक्ष्मनिया, चुनिया, केषकली , कल्ली एवं पुरूष वर्ग में सुराज, हीरालाल, चैतराम, रामगरीब, बुंधी, संतोष , छोटे लाल, राजा, मुस्तरीक, के स्पष्ट बयान है, कि आसपास की बस्ती के 16 परिवारो और 4 मजरों के 400 परिवारो में पिछले कई वर्षों के बाद भी सरकारी स्कीमें उनका विकास नही कर सकी ।



इनके बीच से मनरेगा जैसी महत्वपूर्ण योजना भी धराशाही है, उनका कहना है कि पूरे गांव में मात्र दो लोगो के पास ही जाब कार्ड है। जाब कार्ड धारक संतोष ने बताया कि पिछले एक वर्ष पूर्व उसने फतेहगंज जाकर 5 खंती (गडढे) खुदाई की थी जिसकी मजदूरी 500 रू0 होती है लेकिन ग्राम पंचायत के प्रधान कल्लू कोरी ने मजदूरी निकालने के बाद जाब कार्ड में कई दिवस के कार्यो के साथ चढा दी मगर उसे मजदूरी नही दी। इस गांव में प्राथमिक विद्यालय तो है लेकिन उसमे पढाने वाले अध्यापक बच्चों की मिड-डे मील योजना के साथ गायब है। गांव की किसी भी महिला को प्रसव कराने के लिये प्रशिक्षित दाई या आंगनबाडी केन्द्रो की सहायता उपलब्ध नही हुयी ये आज भी परंपरागत तरीके से अपनी बस्ती की बुजुर्ग दाई से प्रसव कराती है। गांव में बीहड़ से होकर निकलने वाली जर्जर सडके जल जमीन जंगल से उपेक्षित भयावह भूख की चितकारे बच्चो के चेहरों में और उनके शरीर पर कुपोषण की रेखायें खीच देती है। 

0 से 10 वर्ष का प्रत्येक बच्चा स्कर्वी रोग,एनिमिया से पीडित है। शायद ही कोई महिला ऐसी नजर आये जिसके शरीर में पूरे कपडे हो।

बुजुर्गो की धंसी हुयी आंखे, दस्युओं का रौब , दबंग वर्दी का खौफ एवं वन विभाग कर्मियों की बदनियत निगाहे उनके कपड़ो में हुये छेद के उस पार निकल जाती हैं । पूरी बस्ती में एक मात्र  सरकारी हैंड पंप है जो बिगड जाने के बाद फिर कब बनेगा यह कोई नही जानता। आस पास के मजरो में बसे हुये परिवार चारो तरफ से घिरी हुयी पहाड़ी को पार करने के बाद म0प्र0 के इलाके में एक पोखर से पानी भरने जाते है वह भी जनवरी माह तक भरी रहती है शेष दिनों में वे और उनके मवेशी जो आये दिन जंगली जानवरो, अफसरों, दस्युओं की दावत का जरिया है पानी की वीभत्स गर्जना से आहत होते है। पूरी बस्ती में सर्वाधिक पढा लिखा 27 वर्ष का बेकार युवा रामगरीब है जो कक्षा 6 पास है।

 गांव के बुजुर्ग व्यक्ति और महिलाओं विधवा राजाबाई, सुन्दी, सुराज, तिरसिया बडे बेबाक शब्दो मे कहते है कि साहब बदमास आवत है तौ खाना मांगत है, हम का करी।

 पुलिस आवत है और कहत है कि लाऊ तुम्हार जन्म कुंडली बना दे, जलाऊ लकडी बेचत है तौ वन दरोगा और सिपाही उल्टा सीध बात करत है।

जिस दिन ये भूखे परिवार जंगल से लकडियां काटकर फतेहगंज, बदौसा, अतर्रा में लकडियां न बेचे तो इनके घरों का चूल्हा नही जलता, उनकी राख बडी खामोशी से मिट्टी के फटे हाल चूल्हे में भूख से सो जाती है और बच्चों को तम्बाकू रगड़ कर सिर्फ इस लिये चुसा दी जाती है ताकि वो खाना न मागें और सो जाये।

 प्राचीन मन्दिर
विशेषत: गोबरी ग्राम के बाहरी हिस्से में ही 10वी 12वी शताब्दी का अति प्राचीन राष्ट्रीय महत्व प्राप्त बौद्ध स्पूत मंदिर (गर्भ गृह) भी है जिसका बाहय आवरण, मंदिर की मूर्तिया पूरी तरह खजुराहो, सूर्य मंदिर के समकालीन प्रतीत होती है मुख्य द्वार पर लगा हुआ जीर्ण शीर्ण सरकारी बोर्ड पुरातत्वीय स्थल एवं अवशेष अधिनियम 1958 (24वा एक्ट) इसे अंतर्राष्ट्रीय स्मारक घोषित करता है किंतु मंदिर की खंडित मूर्तियां वर्तमान  में डकैतो के छिपने की पनाह है। वन विभाग, जिला प्रशासन, पुरातत्व विभाग पूरी तरह से इस अवस्था का जिम्मेवार है और इन आदिवासी परिवारों के साथ ऐतिहासिक मंदिर की संस्कृति को भी संरक्षण प्रदान हो ताकि पलायन होते परिवार, खत्म होते जंगल और पानी को अवषेष होने से बचाया जा सके, इस बौद्ध मंदिर को पर्यटन स्थल में परिवर्तित किया जाये।

बड़ी बात नही कि समाजिक तिरस्कार, भुखमरी से जूझते यह परिवार निकट भविष्य मे झारखंड, उडीसा में उपजी नक्सलवाद की समस्या से ग्रसित होने के लिये बाध्य न हो।

आशीष दीक्षित "सागर" (लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है, वन एंव पर्यावरण के संबध में बुन्देलखण्ड अंचल में सक्रिय, प्रवास संस्था के संस्थापक के तौर पर, मानव संसाधनों व महिलाओं की हिमायत, पर्यावरण व जैव-विविधता के संवर्धन व सरंक्षण में सक्रिय, चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय से एम०एस० डब्ल्यु० करने के उपरान्त भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के उपक्रम कपाट में दो वर्षों का कार्यानुभव, उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद में निवास, इनसे ashishdixit01@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं) 

1 comment:

  1. रामेन्द्र त्रिपाठीFebruary 6, 2011 at 11:31 PM

    सच कह रहे हो भैयो ये आन्दोलनकारी मझौले पुरस्कार पाई जावत है, बेचारा आदिवासी कछु नाहि पावत....

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