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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Feb 1, 2011

वनटांगिया: अस्तित्व की जंग

टांगिया बस्ती में एक बच्ची जिसकी नज़रे मानो खोज रही हो अपना वजूद!
-वनाधिकार कानून के तहत टांगिया मांगेगे अपना हक
-भीरा जंगल के बीच में बसे हैं ९० परिवार



बिजुआ। टांगिया न तो कोई गांव है और न ही कोई जाति। ये वो गुलामी के निशान है जो इन लोगों के माथे पर दर्ज हो गया है। इनके साथ वन महकमें ने खूब खेल खेला। जरूरत के समय खुद ही इन लोगों को लाकर बसाया, और फिर इनके अस्तित्व से ही इन्कार कर गया। अपने अस्तित्व की लड़ाई ये आज भी अदालत में लड़ रहे हैं। वनाधिकार  कानून २००६ लागू होने के बाद भी इन्हें कोई हक नही मिले हैं, अपने हक की मांग कर रहे इन टांगिया वनवासियों को अफसरों से सिवाय अश्वासन के कुछ न मिला।

आखिर क्या हैं टांगिया? और क्यों रह रहे हैं इन जंगलो के बीच में,और क्यों इन्हे अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩी पड़ रही है। इस सवाल को जानने के लिए बिजुआ से दस किमी पल्हनापुर गांव और फिर वहां से घने जंगल के बीच टेढ़ी-मेढ़ी पंगडन्डियों पर ६ किमी का सफर तय करना होगा।
टांगिया समुदाय

खीरी जिले के पल्हनापुर के समीप भीरा रेंज के कम्पार्टमेंट नम्बर ११ में रह रहे वन टांगिया लाल फीता शाही के शिकार है। ६० के दशक में जब खीरी के जंगल कट चुके थे,तो उन्हे फिर से रोपने के लिए गोरखपुर इलाके से ५०-६० परिवार लाये गये थे। अब इनकी आबादी ९० परिवार में ४०० लोगों की है। टांगिया इन की जाति नही है, टांगिया विशुद्ध रूप से बर्मी भाषा का शब्द है,जिसके मायने बंधुआ मजदूरी है।  टांगिया उस सिस्टम को कहते है, जिनमें खेती के साथ पौधारोपण का कार्य होता है।  वन विभाग इन लोगो को जंगल के बीच खेती के लिए भूमि महज पांच सालों के लिए देता था, और साथ में सागौन,साखू के पौधे भी रोपते थे। हर पांच साल बाद महकमा इन लोगो को खानाबदोशों की तरह दूसरी जगह बसा देता था। १९८४ में वन विभाग ने टांगिया सिस्टम खत्म कर दिया, और कागजो पर इनकी मूल निवास को वापसी दिखा दी। हकीकत कुछ और थी, जो कि अब आईना हो गई है।
टांगिया बस्ती का रास्ता

अपने बुनियादी हकों और वजूद के लिए इन लोगों ने टांगिया विकास समिति बनाकर उच्चन्यायालय में वर्ष २००४ में एक वाद दायर किया, जो कि अभी विचाराधीन है। हाल ही में लागू हुए अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम २००६ लागू होने के बाद भी इन्हें कोई हक नहीं मिले। अभी तक इन्हे राजस्व ग्राम का दर्जा नहीं मिला है। जब कि समाज कल्याण अनुभाग-३ के सचिव अरविंद सिंह देव ने १५ जून २००९ को एक शासनादेश जारी कर टांगिया वन समिति का गठन कराकर वन अधिकार पत्रों के निस्तारण के निर्देश दिये थे।

अब्दुल सलीम खान  (लेखक युवा पत्रकार है, वन्य-जीवन के सरंक्षण में विशेष अभिरूचि, जमीनी मसायल पर तीक्ष्ण लेखन, खीरी जनपद के गुलरिया गाँव में निवास, इनसे salimreporter.lmp@)gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)





6 comments:

  1. have no words to say some times i think why we do not rise and change this fraudulent body which calls it self democracy

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  2. very good article..its good to know who lives inside and nearby jungles..and why...
    nomads....

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  3. बहुत कुछ कहती है इनकी व्यथा- कथा ।

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  4. आपके प्रयास अवश्‍य रंग लायेंगे। कुछ तो सफलता के परचम लहरायेंगे।

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  5. Aapki yeh report bahut aachi hai. Humne is report ko dainik jagran mein bhi padha hai. Darasal tongia par bahut hi kam lekhan hua hai khas taur par media mein. In gaon ke baare mein koi bhi nahi sochata yeh gaon khas taur par van vibhag ki samanti sanstha ka jita jagta misal hai. In gaon ko samajhne se hi van vibhag jaise feudal aur upnevashik mansikta ki sooch ko samjha ja sakta hai.Mein aapko badhai deti hu ki aapne itne critical aur sanjeda issue par likha. Is par mera sujav hai ki dainik jagran ya dudwa live par lagatar ek coloumn likhe aur isko state aur national level ka issue banaye. Isi tarah se gorakhpur ke dainik jagran ke ek samvadata ne lagatar tongia par likh kar pure ilake mein janmanas ko is issue par jagruk kiya v tongia niwasiyo ko sahyog diya. Roma (Sonbhadra, UP)

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  6. MAI AAP SAB KA SHUKRIYA ADA KARNA CHAHTA Hoon AAPNE IS LEKH PAR APNE VICHAR RAKHE, YE KOI KHABAR NAHI YE HAKIKAT HAI ISE, AUR IS HAKIKAT KO AAPNE SAMJHA,
    AUR MAI ROMA JI KO THANKS BOLNA CHAHUNGA, KI UNHONE MERI HAUSLA AFJAAI KI, BAHARHAAL MAINE SHURUWAT KI HAI BAKI...............

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