वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jul 22, 2010

सब कुछ बदल देगी ये नव-मानवता!

मानवता के जमींदोज होते ही सब खत्म हो जायेगा:गिद्ध तो मात्र एक उदाहरण हैं!
एक बात समझ नही आती, "डाइक्लोफ़ेनेक"(Diclofenac) न जाने कब से मानव व मवेशियों में इस्तेमाल हो रही है, एक बेहतरीन व तुरन्त लाभ देने वाले पेन-किलर के तौर पर....साइड एफ़ेक्ट्स से भी मैं परहेज नही करता लेकिन क्या क्या यही असली किलर है गिद्धों की! क्योंकि गिद्धों की अनुपस्थित में कौए व कुत्ते डाइक्लोफ़ेनेक दिए गये मवेशी का मृत शरीर खाते हैं, कुत्तों को हम छोड़ दे तो कौए का बाडी मास गिद्ध से  कम होता है..फ़िर वे क्यों नही मरते? कहीं ये दलाल वन्य जीव प्रेमियों व मल्टी नेशनल कम्पनियों के शेरू (पालतू)संस्थाओं की साजिश तो नही कि डाइक्लोफ़ेनेक की जगह किसी और कंपनी की दवा विकल्प के तौर पर लॉन्च करवाने की! फ़िलहाल मुझे तो हैविटेट लॉस और मवेशियों के मरने से पहले मलिच्छों द्वारा उनका स्लाटर हाउस में काटा जाना ही मुख्य कारण लगता हैं, क्योंकि ये मलिच्छ उनके मांस को खाने के लिए गिद्धों से भी ज्यादा बेताब रहते हैं! अब आप ही बताए जब मवेशी का मृत शरीर ही गिद्धों को नही मिलेगा तो वह खायेंगे क्या? हाँ एक और महत्व पूर्ण बात! मैने अपने जनपद खीरी में मृत मवेशियों की खाल निकालने वाले लोगों को जहरीले पेस्टीसाइट उनके मृत शरीरों पर छिड़कते देखा है, ताकि खाल निकालने के दौरान गिद्ध या अन्य मुर्दाखोर जानवर व पक्षी उन्हे परेशान न करे! इन घटनाओं में सैकड़ों पक्षियों को मरते देखा हैं। पता नही क्यों लोग बदलती मानव प्रवृत्तियों की ओर ध्यान नही देते है...शैतानी प्रवृत्तिया..जहाँ करूणा, सहिष्णता, भाईचारा, दया, प्रेम इन सब का टोटा हो रहा है और इनके बदले लालच, स्वार्थ और घृणा, हिंसा जैसे प्रवृत्तियों का प्रादुर्भाव...ये हमारी और हमारे बनाये हुए उन सब नियमों की असफ़लता हैं जिन्हें हम धर्म, संविधान, कानून और परंपरा कहते हैं, सब किताबी हो रहा है,...जल्द हम नही संभले तो मानवता की परिभाषा बदल जायेगी या बदल चुकी है..और फ़िर ये मानव गिद्धों या अन्य जीव-जन्तुओं के बदले अपनी स्वजाति को नोच-नोच कर खायेंगे..शायद अभी भी कुछ ऐसा हो रहा हैं!.....
मानवता की बात करना इस लिए जरूरी हो जाता है कि यही प्रजाति धरती की शिरमौर है, और इसकी हर गतिविधि धरती के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग (प्राणी!) पर प्रभाव(दुष्प्रभाव) डालती है, मुझे याद है वह वक्त भी जब किसी का पालतू मवेशी बूढ़ा हो जाता था तो खूटें पर ही उसकी मौत का इन्तजार किया जाता था, करूण मन से!न कि आजकल की तरह कि जिस जानवर का दूध पीकर वो और उनके बच्चे जवान होते हैं, उसके बूढ़े होने पर भी उसके माँस और हड्डियों की कीमत उन्हे चाहिए, नतीजतन उस जानवर को कुछ पैसों के लिए कटने के लिए बेच दिया जाता हैं....बिना किसी कृतज्ञता व करूण संवेदना के.........  
एक बड़ा सवाल ये है कि गाँवों और शहरों से वह सारी जगहे नष्ट हो रही हैं, जो कभी बूढ़े व बीमार जानवरो को जीने के लिए जगह और भोजन प्रदान करती थी...चरागाह, जंगलियां, बंजर,....झाबर...इसका दुष्प्रभाव उन गरीब लोगों पर भी पड़ा जिनके पास अपने खेत नही है, और जो मवेशियों को इन्ही जगहों पर चराई कराकर उन्हे पालते थे। जाहिर हैं कि पशुओं की संख्या लगातार घटती जा रही है, सिर्फ़ उद्योग के तौर पर गन्दे व छोटे दबड़ों मे पशुपालन हो रहा है, और जब कोई दुधारू पशु दूध देने के काबिल नही बचता तो उसे कटने के लिए बेच दिया जाता है...कुछ रूपयों के बदले.....मुस्कराते हुए....उस जानवर की डोर कसाई के हाथ दे दी जाती हैं......अब ऐसे में उस खाद्य श्रखंला का सिलसिला कैसे कायम रह सकता है, जिस पर गिद्धों का जीवन निर्भर है! जब भोजन और आवास ही नही होंगे तो कोई प्रजाति कैसे जीवित रह पायेगी..मुझसे किसी ने कहा था! कि किसी को नष्ट करना हो तो उसका घर उजाड़ दो! और यही हो रहा है वे सभी विशाल वृक्ष धरती से गायब हो रहे है जिन इन परिन्दों का बसेरा हुआ करता था...हाँ वेबसाइट और अखबारों  टी०वी० वगौरह में चिन्ता जाहिर करना तभी सार्थक है जब कुछ किया जाय ....गाँवों से परती भूमियों से अतिक्रमड़ हटाए जाय और पीपल, बरगद, गूलर जैसे विशाल वृक्षों का रोपण हो --जो अपने आप मे एक पूरा पारिस्थितिकी तंत्र होते हैं!.... मैने यह प्रयास पिछले कुछ वर्षों से जारी रखा हुआ है और आप सब को भी विनम्रता के साथ आमंत्रित करता हूँ..कि.... 
मेरे ये शब्द उन सवेंदना से हीन लोगों के लिए जो मवेशियों को जीव न समझ कर वस्तु समझते हैं, और हज़ारों सालों से इन्हे गुलामों की तरह इस्तेमाल करते आ रहे है, आखिर हम इनसे काम लेते है, तो हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि हम इनके प्रति सहिष्णुता का बर्ताव करे! ये कैसी मानवता है और कैसी है उसकी परिभाषा कि धरती पर मौजूद एक जाति जिसे हम मानव कहते है उसके कल्याण के लिए न जाने कितने प्रयास और फ़िर घर आकर किसी जीव के गोस्त को अपने हलक से नीचे उतारते हुए मानवता की बात करते है, या धरती की तमाम प्रजातियां जिनके साथ हम रहते आये है, उनसे काम भी लिया और जब वो इस काबिल नही रहे कि हमारी अय्याशियों का बोझ ढो सके तब उन्हे हम चन्द रूपयों के लिए कसाईयों के सुपर्द कर देते हैं---वाह री मानवता!-

कृष्ण कुमार मिश्र


3 comments:

  1. मानवता की बात करना इस लिए जरूरी हो जाता है कि यही प्रजाति धरती की शिरमौर है, और इसकी हर गतिविधि धरती के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग (प्राणी!) पर प्रभाव(दुष्प्रभाव) डालती है, मुझे याद है वह वक्त भी जब किसी का पालतू मवेशी बूढ़ा हो जाता था तो खूटें पर ही उसकी मौत का इन्तजार किया जाता था, करूण मन से!न कि आजकल की तरह कि जिस जानवर का दूध पीकर वो और उनके बच्चे जवान होते हैं, उसके बूढ़े होने पर भी उसके माँस और हड्डियों की कीमत उन्हे चाहिए, नतीजतन उस जानवर को कुछ पैसों के लिए कटने के लिए बेच दिया जाता हैं....बिना किसी कृतज्ञता व करूण संवेदना के.........

    बहुत ही समबेदनात्मक प्रस्तुती ,ऐसी ही प्रस्तुती ब्लॉग लेखन को सार्थकता प्रदान करती है और इसी से इंसानियत और मानवता जिन्दा होगा ,काश शरद पवार जैसे लोभियों के दिमाग में ऐसी बातें थोड़ी भी आ जाती ...?

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  2. कृष्ण मिश्रJuly 22, 2010 at 6:44 PM

    मैं भी Diclofenac बन्द कराने की उस मुहिम में शामिल था! प्रधानमंत्री को मैने भी चिठ्ठिया लिखी,आप को मालूम हो सभी पेन किलर या सभी दवाइया बैड एफ़ेक्ट्स छोड़ती है इसका मतलब ये बिल्कुल नही कि एक प्रजाति को नष्ट करने में वही मुख्य कारक हो!

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