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International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Mar 13, 2010

अरे यें तो हिस्सा थीं हमारे घर का!

गौरैया: फ़ोटो साभार: सतपाल सिंह*
 कृष्ण कुमार मिश्र*
"माँ और गौरैया"
ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है, कहीं भी शाख़े-गुल देखे तो झूला डाल देती है|“
बात चली गौरैया दिवस मनाने की तो लोगों के दिलों से वह सारे जज्बात निकल कर बाहर आ गये, जो इस खबसूरत चिड़िया को लेकर उनके बचपन की यादों में पैबस्त थे! उन्ही यादों के झरोंखो से कुछ विगत स्मृतियों को आप सब के लिए लाया हूं, क्या पता आप को भी कुछ याद आ जाए।
जब हम परंपराओं की बात करते हैं, तो माँ उस परिदृश्य में प्रमुख होती है, क्यों कि परंपराओं का पोषण और उसका अगली पीढ़ी में संस्कार के तौर पर भेजना, माँ से बेहतर कोई नही कर सकता, गौरैया भी हमारी परंपरा का हिस्सा रही, और हम सब जब भी इस परिन्दे का जिक्र करते हैं तो माँ बरबस सामने होती है!

डा० धीरज आप जयपुर में रहती हैं, इनकी स्मृतियों में गौरैया की बात करते ही, पूरे परिदृश्य में माँ की मौजूदगी होती है, इनकी माँ ने इन्हे बचपन से ये बताया कि इनकी नानी को गौरैया बहुत पसन्द थी और वह कहती रहती थी कि मैं मरने के बाद गौरैया बनना चाहूंगी, और यही वजह थी की धीरज के घर में गौरैया को हमेशा दुलार मिलता रहा, खास-तौर से एक टूटी टाँग वाली गौरैया को, जिसकों इनकी माँ कहती थी कि बेटा ये तुम्हारी नानी ही हैं,! भारत की संस्कृति में जीवों के प्रति प्रेम-अनुराग का यह बेहतरीन उदाहरण है, और उन मान्यताओं का भी जो पुनर्जन्म को परिभाषित करती हैं!
सीतापुर जिले की रहने वाली गिरजेश नन्दिनी ने जब दुधवा लाइव पर रामेन्द्र जनवार की कवितायें पढ़ी जो गौरैया और माँ के संबधों को जाहिर करती हैं, तो उन्हे लगा कि जैसे ये कविता मानों उन पर ही लिखी गयी है, क्योंकि सीतापुर शहर में वो किराये के मकान में जहाँ-जहाँ रही गौरैया का एक कुनबा उनके साथ रहा, वह जब भी मकान छोड़ कर नये मकान में जाती यह चिड़ियां उन्हे खोज लेती हैं, इनकी माँ आजकल इस बात से परेशान हैं, कि चिड़ियों के उस कुनबे में एक गौरैया कही खो गयी है! और उसकी फ़िक्र इन्हे हमेशा रहती है।

मेरे बचपन में मेरी माँ मुझे जब खाना खिलाती और मै नही खाता तो वो गौरैया से कहती कि चिर्रा आ ये खाना तू खा ले.............माँ ने अपनी विगत स्मृतियों के पुलिन्दे से गौरैया की यादों को निकालते हुए बताया कि बचपन में वे भाइयों के साथ अपने घर में गौरैयों को पकड़ती और उन्हे रंगों से रंग देती, और जब ये गौरैया इन्हे दिख जाती तो अपने रंग से रंगी हुई गौरैया को देखते ही सब खुश होकर शोर मचाते कि ये मेरी गौरैया है.....मेरी......   
माँ और गौरैया का रिस्ता सदियों से मानव समाज में पोषित होता आया, इसने हमारे बचपन में रंग भरे, आकाश में उड़ने की तमन्ना भी, किन्तु अब ये आकाश के बन्जारे हमारी करतूतो से ही हमारे घरों से गायब और नज़रों से ओझल हो रहे है, नतीजतन अब कोई माँ अपने बच्चे की यादों में गौरैया के रंग नही भर पायेगी।
कृष्ण कुमार मिश्र ( लेखक वन्य-जीवन के अध्ययन व सरंक्षण के लिए प्रयासरत है, लखीमपुर खीरी में रहते हैं, इनसे dudhwajungles@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

3 comments:

  1. nice post
    amitraghat.blogspot.com

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  2. सोचो कि जब गाँव नहीं होगा और मिटटी के घर नहीं होगे तो क्या होगा .आपको डराने कि इजाजत चाहुगा और पियूष मिश्रा के सब्दों में अभिव्यक्ति है

    सुनसान गली के नुक्कड़ पे जब कोई कुत्ता चीख चीख के रोता है
    जब लंप पोस्ट कि गंदली पिली धुप रौशनी में कुछ कुछ सा होता है
    जब कोई साया इस सायों से बचा बचा के इन सायों में खोता है ...

    तब जानते है क्या होता है
    लेकिन इसे देख रंग बिरंगे महलों में गुन्जैस होती है
    नशे में दुबे साहनों से खूंखार चुटकलों कि पैदैस होती है
    अधनंगे जिस्मो कि देखो लिपी पुती सी रोज नुमैस होती है
    लार टपकते चेहरों को कुछ शैतानीकरने कि ख्वाइश होती है
    सोचो सोचा ऐसा कब कब होता है
    जब सहर हमारा सोता है

    ...मिश्रा जी जगाने के लिए धन्यवाद

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  3. मेरी प्यारी गौरैया .......
    गलती हमारी ही थी .......
    तुम तो आतीं थीं रोज़
    हमीं नें नहीं आने दिया तुम्हें अपने घर में /
    तुम्हारे घोसले के तिनकों से गंदा न हो जाए हमारा घर
    अपना घर साफ़ रखने की जिद में उजड़ गया तुम्हारा घर /
    तुम्हारे प्रजनन को इतना महत्वहीन समझा हमने
    कितनी बड़ी भूल थी यह ........
    अक्षम्य भूल /
    अब पश्चाताप होता है .....
    बच्चे तरस गए हैं तुम्हें देखने के लिए /
    मैं उन्हें कैसे बताऊँ
    कि कितने सुन्दर होते हैं तुम्हारे पंख ... .
    तुम्हारी फुदक-फुदक कर दाना चुंगने की अदा ......
    तुम्हारी प्यारी गुस्ताख हरकतें .....
    आईने में अपनी ही शक्ल से
    चोंच लड़ा-लड़ा कर थक जाना और फिर खीज कर फुर्र से उड़ जाना
    तिनका-तिनका जोड़ कर आले में या आईने के पीछे
    घोसला बनाने की तल्लीनता ......
    जी -तोड़ मेहनत ..... और फिर
    गुलाबी मुंह खोले नन्हे बच्चों को भात का दाना चुंगाने में बरसती ममता.....
    गर्मी में मिट्टी के प्याले में रखे पानी को डर-डर के पीना
    धूल में लोट-लोट कर नहाना .....
    देख-देख कर खुश होते थे बाबा .......
    गौरैया धूल में नहा रही है ....ज़रूर पानी बरसने वाला है
    कैसे बताऊँ मैं यह सब
    अपने बच्चों को जिन्होंने देखी नहीं आज तक एक गौरैया
    उफ़ .....
    बहुत याद आती है तुम्हारी
    प्यारी गौरैया !
    मुझे माफ़ कर दो ना
    देखो ...मैंने खोल दी हैं सारी खिड़कियाँ
    और रोशनदान भी
    कहीं भी घोसला बनाओ .......
    अब तुम्हें कोई नहीं भगाएगा
    कभी नहीं भगाएगा
    तुम वापस आओगी ना !

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