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Oct 30, 2019

उत्तराखंड के जल मंदिरों की संस्कृति का सरंक्षण- एक प्रयास



बचानी होगी लोक परंपरा तभी रहेगी संस्कृति


द्वाराहाट /अल्मोड़ा : उत्तराखंडी संस्कृति के प्रमुख त्यौहार बग्वाल (दिवाली) पर परंपरागत जल सरंक्षण को समर्पित नौला मित्रों ने सामुदायिक सहभागिता से संपूर्ण राज्य भर में नौला के संस्कार जगाने के लिए नौला दिवाली पूजन का आह्वान किया और पर उत्तराखंड के धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संस्कृति के प्रतीक पवित्र ऐतिहासिक नौलो धारों पर दिवाली पूजन किया गया । सभी गांव वालों ने मिलकर सामाजिक सहभागिता से एक दिन पहले जल संस्कृति पहाड़_पानी_परम्परा के सच्चे वाहक भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के प्रतीक पारम्परिक नौले-धारे पर सामुदायिक श्रमदान करके किया विशेष सफाई अभियान चलाया और रंग बिरंगे पतंगे, ऐपण बनाकर सुन्दर कलाकृति बनायीं और साथ में जल संकल्प लिया की हर गांव वासी अपने पारम्परिक नौलों धारों के पानी को स्वस्छ रखेंगे और उनकी सुंदरता बनाये रखेंगे और उसकी जैव विविधता से कोई छेड़छाड़ किया बगैर दिवाली के दिन सुन्दर दीयों से दीपदान किया और मिलकर प्रदुषण रहित दिवाली मनाई ।


अल्मोड़ा जिले में द्वाराहाट ब्लॉक के गगास घाटी क्षेत्र के थामण व बड़ेत भौरा गांव से शुरू हुयी ये मुहीम धीरे धीरे पुरे कुमाऊँ व गढ़वाल तक फ़ैल गयी, जिला अल्मोड़ा से विकासखंड अल्मोड़ा, द्वाराहाट, लमगड़ा, ताड़ीखेत, भिकियासैण, ताकुला, जिला व् विकासखंड चम्पावत, जिला नैनीताल से विकासखंड भीमताल नौकुचियताल, कोटाबाग, जिला बागेश्वर से गरूर ब्लॉक, जिला रुद्रप्रयाग से विकासखंड अगस्तमुनि के गांव शामिल हुए । कभी पहाड़ की पेयजल स्रोत के अलावा परंपरागत संस्कृति व संस्कार की जगह ये प्राचीन नौले धारे का उत्तराखण्ड में संसाधन उपयोग और संरक्षण में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संवेदनशीलता इत्यादि का पूरा ध्यान रखा जाता रहा है। ये धारे-नौले सदैव ही सामूहिकता, सामंजस्यता, सद्भावना और परस्पर सम्मान के वाहक रहे हैं और साथ ही, ग्राम-समाज की जीवनरेखा ये धारे, पंदेरे, मगरे और नौले प्राकृतिक ही रहे हैं। अर्थात, जहाँ प्राकृतिक रूप से पानी था, वहीं इनका निर्माण किया गया। पर इनका रिचार्ज जोन हमेशा प्राकृतिक ही होता हैं जो सदियों से सामुदायिक जल संचय और उसके संरक्षण और संवर्धन हमेशा प्राकृतिक ही होता था और पहाड़ो की ढालों में बने हुए सीढ़ीदार खेत ही प्राकृतिक चाल खाल का काम करते थे।


उत्तराखंड में जल मंदिरो यानि नौलो का इतिहास पांडवो से जोड़कर देखा जाता हैं जिनके वनवास व अज्ञातवास के समय बिताये गए क्षेत्रों में पीने के लिए जल स्रोतों के पानी को एकत्र करके यदि जल की मात्रा अर्थात उसका प्रवाह नियमित और ठीक-ठाक मात्रा में होता था तो जल को सूर्य के ताप से बचाने के लिए उन्हें  ग्राम-समाज उसे धारे-पंदेरे या मगरे का रूप देता था और यदि पानी की मात्रा कम होती थी तो सूर्य की किरणों से बचाकर उसे नौले का रूप दिया जाता था । बाद में मध्ययुगीन शासको कत्यूरी, पवार, चंद वंश ने अपनी प्रजा के लिए नौले घरों का निर्माण बहुतायत से कराया I उत्तराखंड में ऐतिहासिक समकोण के अलावा लगभग हर नौले की एक कहानी हैं जो पारम्परिक नौले धारे की संस्कृति को परंपरागत समाज से जोड़े रखती हैं जो आज बिलुप्त होने के कगार पर हैं  । इस अभ्यास से पानी के वाष्पीकरण को रोकने में मदद मिली। नौला और धारा के अलावा, पहाड़ों की ढलानों पर निर्मित छोटे-छोटे कृत्रिम तालाब और खल भी कई स्थानों पर नियमित रूप से बनाए जाते थे। ये तालाब न केवल वर्षा जल संचयन के पारंपरिक तरीके थे, जो भूजल स्तर को बनाए रखने में मदद करते थे, बल्कि जंगलों में घरेलू और जंगली जानवरों को पानी भी प्रदान करते थे।

जहाँ तक धारों-नौलों के इतिहास की बात है, पनत्युरा सुरनकोट व गंगोलीहाट का नौला उत्तराखण्ड का सबसे प्राचीन नौला माना जाता है। आज जलवायु परिवर्तन व वनो का त्यधिक दोहन का दुष्प्रभाव पहाड़ों की जैव विविधता पर पड़ने सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में धारे, पंदेरे, मगरे और नौले सूख रहे हैं और इसके लिये केवल और केवल मानव हस्तक्षेप उत्तरदाई है । नौला मित्रो का संगठन नौला फाउंडेशन सुदूर रिमोट गांव के क्षेत्रीय लोगो का विकास एवं उनकी सहभागिता से  जल  सरंक्षण के साथ साथ जैव विधतता को भी को बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास कर रहा हैं जिसके लिए फाउंडेशन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक समरसता एवं चिंतन संवाद के जरिये गगास घाटी के लोगो के जीवन पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभाव पर एक व्यापक नीति पर कार्य कर रहा हैं जिसका परिणाम जल्द ही सामने आने लगेगा । नौला फाउंडेशन का एकमात्र उद्देश्य सामुदायिक सहभागिता से परम्परागत जल सरंक्षण पद्धति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर पारम्परिक जल स्रोत नौले - धारे को उनका सम्मान वापस दिलाना हैं उनकी पहचान वापस दिलाना हैं और गांव वालो शुद्ध मिनरल पेयजल मुहैया करना हैं । फाउंडेशन ने सामुदायिक सहभागिता से गगास घाटी के सुन्दर गांव थामण में एक पूरी तरह से सुख चुके नौले को पारम्परिक जल सरंक्षण पद्धति को अपनाकर पुनर्जीवित करने में सफलता पायी हैं और पानी भी शुद्ध हैं क्योकि मानवीय हस्तक्षेप नहीं के बराबर हैं और फाउंडेशन की असली चुनौती अल्मोड़ा शहर के पूरी तरह से प्रदूषित हो चुके भूजल व नौले धारों के पानी को शुद्ध करने के लिए तैयार होना पड़ेगा तभी असली परीक्षा होगी क्योकि प्रशासन तो इनके पानी को अशुद्ध करने में अभी तक असमर्थ हैं जिससे स्थानीय लोगो को गर्मियों में पानी की किल्लत से जुझना पड़ता हैं I


@नौला फाउंडेशन 

1 comment:

  1. बहुत सुंदर प्रयास, सामुदायिक सहभागिता से ही इस जल संस्कृति को बचाया जा सकता है।
    लेख उत्तम है परंतु भाषाई व व्याकरणीय अशुद्धियां कहीं-कहीं पर दिखाई दी। एडिटिंग की आवश्यकता है लेख में।

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