वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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बीती सदी में बापू ने कहा था

"किसी राष्ट्र की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से मापा जाता है कि वह अपने यहां जानवरों से किस तरह का सलूक करता है"- मोहनदास करमचन्द गाँधी

ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Jun 21, 2016

पानी जिसमें स्वयं नारायण निवास करते हैं




अंजलि भर जल की प्यास
श्रम का सीकर, दु:ख का आँसू
हँसती आँखों में सपने, जल !... 

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
तासू शेते स यस्माच्च तेन नारायणः स्मृतः।। 

अर्थात जल, नर से प्रकट हुआ है, इसलिए इसका नाम ’नार’ है। भगवान इसमें अयन करते हैं यानी सोते हैं, इसलिए उन्हे नारायण कहा गया। भारतीय जलदर्शन कहता है कि पहले जल की रचना हुई; फिर जल से ही सूर्य, ब्रह्म हुए। ब्रह्म द्वारा रचित स्वर्गलोक, भूलोक, आकाश, विद्युत, मेघमण्डल, नदियां, पहाङ और नाना प्रकार की वनस्पतियां.. सभी जल से ही प्रकट हुए| इसलिए ही मंदिर में आरती के बाद, शंख में भर जल के छिडके हुए पवित्र छींटे या आचमन में तुलसी दल के साथ प्रभु का महाप्रसाद मान लिया जाता है| कलश के जल में पान के पत्ते की छिन्टो से हम स्नानम् समर्पयामि कह कर  भगवान को स्नान करवा देते है| अंजलि भर जल भी महान बना देता है, अंजलि भर जल से ही महान संकल्प किये जाते है, राजा बलि ने संकल्प लेकर तीनोलोक दान में दे दिए और  राजा हरिश्चचंद्र ने भी अंजलि भर जल की प्रतिज्ञा से कितने कष्ट उठाये| इस पवित्र जल की आज ये दुर्दशा है की नदियाँ जो बर्ष भर इस जल से आच्छादित रहती थी आज रुष्ट हो गयी है, अपने में ही सिमट गयी है| तालाब और झीले, झरने सब मौन है अब|  बादलो ने भी अपना रुख बदल लिया है.

जल है धरती की धमनी का रक्त

जब वयोवृद्ध सिद्धार्थ नदी के किनारे बैठ कर ध्यानमग्न हो सुनने लगे, तो उन्हें पानी के प्रवाह में “याचितों के विलाप, ज्ञानियों के हास, घृणा के रुदन और मरते हुओं की आह” के स्वर सुनाई दिए। “यह सब स्वर परस्पर बुने हुए, जकड़े हुए थे, सहस्र रूप में एक दूसरे के साथ लिपटे हुए। सारे स्वर, सारे ध्येय, सारी याचनाएँ, सारे क्षोभ, आनन्द, सारा पुण्य, पाप, सब मिल कर जैसे संसार का निर्माण कर रहे थे। ये सब घटनाओं की धारा की तरह, जीवन के संगीत की तरह थे।” जल धरती की धमनियों में बहते रक्त की तरह है, और नदियाँ, झीलें, वायुमंडल, जलस्तर और महासागर इस ग्रह के परिसंचरण तन्त्र की तरह। जल न होता तो जीवन कहाँ होता। न वन होते, न शेर, न इन्द्रधनुष, न घाटियाँ, न सरकारें होतीं न अर्थव्यवस्था। पानी ने ही हमारी भूमि की रूपरेखा खींची है, और उस पर गूढ जीवनजाल के रंग भरे हैं, एक सूक्ष्म सन्तुलन बरकरार रखते हुए। इस ग्रह पर जीवन को वर्तमान रूप में बनाए रखना है तो हमें पानी की बहुत इज़्ज़त करनी चाहिए। कितनी ही प्राचीन संस्कृतियों में पानी को पवित्र वस्तु का दर्जा दिया गया है। उन लोगों ने इस की महत्ता जानी, जिसे हमारा उद्योगीकृत समाज नहीं जानता। हम आए दिन, बिना सोचे समझे, पानी को ऐसे अपवित्र करते हैं, जैसे कि ऐसा करना हमारे व्यवसाय का एक स्वीकृत मूल्य हो। पिछली दो-एक शताब्दियों में, जो कि पृथ्वी के इतिहास में एक क्षण भर था, मानव ने इस ग्रह के जलाशय को इस सीमा तक विषाक्त कर दिया है स्वच्छ जल के अभाव में करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया है।

जल एक राष्ट्रीय मुद्दा: समवर्ती सूची या राज्य सूंची

भूजल स्तर में लगातार गिरावट आने, शहरों का विस्तार होने के बावजूद बुनियादी सुविधाओं की कमी, जलवायु परिवर्तन, देश के 20 राज्यों में जल विषाक्तता के बीच जल के समुचित उपयोग एवं संरक्षण को लेकर एक समग्र, व्यापक राष्ट्रीय नीति बनाने की मांग के साथ ही जल को संविधान की समवर्ती सूची में रखने के विचार पर बहस शुरू हो गई है। ? सरकार का पानी पर स्वामित्व है या वह सिर्फ ट्रस्टी है? यदि ट्रस्टी, सौंपी गई सम्पत्ति की ठीक से देखभाल न करे, तो क्या हमें हक है कि हम ट्रस्टी बदल दें? पानी की हकदारी को लेकर उठे सवालों के बीच जल संसाधन सम्बन्धी संसद की एक स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में पानी को समवर्ती सूची में शामिल करने की बात को आगे बढ़ाया है। इसके अलावा कई वर्गो का भी मत है कि यदि पानी पर राज्यों के बदले, केन्द्र का अधिकार हो, तो बाढ़-सुखाड़ जैसी स्थितियों से बेहतर ढंग से निपटना सम्भव होगा। हमें जल को समवर्ती सूची के अंतर्गत ले लेना चाहिये ताकि केंद्र के हाथ में कुछ संवैधानिक शक्ति आ जायें। इससे देश में जल से जुड़ी समस्याओं से निपटने में मदद मिलेगी। साथ ही राष्ट्रीय संसाधनों का राष्ट्रीय हित में उपयोग निश्चित ही लाभकारी रहेगा। यह यक्ष प्रश्न है कि बाढ़ और सूखे से निपटने में राज्य क्या वाकई बाधक हैं? पानी के प्रबंधन का विकेन्द्रित होना अच्छा है या केन्द्रीकरण होना? समवर्ती सूची में आने से पानी पर एकाधिकार, तानाशाही बढ़ेगी या घटेगी? बाजार का रास्ता आसान हो जाएगा या कठिन? वर्तमान संवैधानिक स्थिति के अनुसार जमीन के नीचे का पानी उसका है, जिसकी जमीन है। सतही जल के मामले में अलग-अलग राज्यों में थोड़ी भिन्नता जरूर है, किन्तु सामान्य नियम है कि निजी भूमि पर बनी जल संरचना का मालिक, निजी भूमिधर होता है। आज की संवैधानिक स्थिति में पानी, राज्य का विषय है। केन्द्र सरकार, पानी को लेकर राज्यों को मार्गदर्शन निर्देश जारी कर सकती है और पानी को लेकर केन्द्रीय जलनीति व केन्द्रीय जल कानून बना सकती है, लेकिन उसे पूरी तरह मानने के लिये राज्य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकती। राज्य अपनी स्थानीय परिस्थितियों और जरूरतों के मुताबिक बदलाव करने के लिये संवैधानिक रूप से स्वतंत्र हैं।

केन्द्र सरकार द्वारा जल रोकथाम एवं नियंत्रण कानून-1974 की धारा 58 के तहत केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, केन्द्रीय भूजल बोर्ड और केन्द्रीय जल आयोग का गठन किया गया । इसकी धारा 61 केन्द्र को केन्द्रीय भूजल बोर्ड आदि के पुनर्गठन का अधिकार देती है और धारा 63 जल सम्बन्धी ऐसे केन्द्रीय बोर्डो के लिये नियम-कायदे बनाने का अधिकार केन्द्र के पास सुरक्षित करती है।पानी के समवर्ती सूची में आने से बदलाव यह होगा कि केन्द्र, पानी सम्बन्धी जो भी कानून बनाएगा, उन्हें मानना राज्य सरकारों के लिए जरूरी होगा। केन्द्रीय जलनीति हो या जल कानून, वे पूरे देश में एक समान लागू होंगे। पानी के समवर्ती सूची में आने के बाद केन्द्र द्वारा बनाए जल कानून के समक्ष, राज्यों के सम्बन्धित कानून निष्प्रभावी हो जायेगा। ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि जल को समवर्ती सूची में रखने से जल बंटवारा विवाद में केन्द्र का निर्णय अन्तिम होगा। नदी जोड़ो परियोजना के सम्बन्ध में अपनी आपत्ति को लेकर अड़ जाने से अधिकार समाप्त हो जाएगा। केन्द्र सरकार, नदी जोड़ो परियोजना को बेरोक-टोक पूरा कर सकेगी। जल संरक्षण के बिना जीवन नहीं है इसलिये हिमालय से निकलने वाली विभिन्न प्राकृतिक जल धाराओं व जलस्रोतों का संरक्षण करना अनिवार्य है।  पानी के सवाल पर सरकार और समाज को एक साथ आना होगा। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण बाबत वैज्ञानिक शोध एवं अनुसंधान हुए हैं । इन्हें समाहित करते हुए मूल निवासियों की जरूरतों के अनुरूप जल-जंगल-ज़मीन के संरक्षण के लिये कार्ययोजना बननी चाहिए। हिमालयी राज्यों में जल संरक्षण के लोक ज्ञान को समाहित करने की  भी जरूरत है।

जल एक अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा : सरकारी या गैर सरकारी

वर्ष 2000 में संपन्न संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दि शिखर सम्मेलन तथा 2002 में संपन्न सस्टेनेबल डेवेलपमेंट पर विश्व शिखर सम्मेलन में दुनिया में ऐसे लोगों की आनुपातिक संख्या, जिन तक शुद्ध पेयजल तथा स्वास्थ्य रक्षा की पर्याप्त पहुँच नहीं है, सन् 2015 तक आधी करने का लक्ष्य निर्धारित गया। वर्तमान में लगभग 110 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त पीने योग्य पानी और तकरीबन 240 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त स्वास्थ्य रक्षा की सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह कैसे पूर्ण किया जा सकता है इस बात पर प्रचंड बहस हुई है। दुनिया भर की महापालिकाओं और व्यापार, विकास तथा आर्थिक एजेंसियों की दलील है कि यह करिश्मा कर दिखा पाने के आर्थिक साधन जुटा पाने का माद्दा केवल ग़ैर सरकारी या निजी क्षेत्र के पास ही है। आर्थिक वैश्विकरण की प्रक्रिया में यह सामान्य विषय है और विकास के वाशिंगटन मतैक्य मॉडल (वाशिंगटन कंसेन्सस मॉडल आफ डेव्हलेपमेंट) के नाम से जाना जाता है। शीत युद्ध के उत्तर युग में पूँजी, सामग्री और सेवाओं के मुक्त व्यापार पर इसी ज़ोर ने वह दुनिया गढ़ी है जिस में हम रह रहे हैं। विश्व बैंक की संरचनागत समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) पद्धति द्वारा लागू, अंतर्राष्ट्रीय मॉनीटरी फंड के विकास ॠणों द्वारा तय तथा विश्व व्यापार संघटन (डबल्यू.टी.ओ) के कानूनी ढांचे तले संरक्षित, व्यापार, निवेश तथा आर्थिक व्यवस्था में सरकार द्बारा दी जा रही नियमों में छूट से एक ऐसी पद्धति की स्थापना हो गई है जिसमें कार्पोरेट के हितों की संरक्षा के लिये मानवीय अधिकारों को कुचल दिया जाता है। जनता द्वारा चुनी राष्ट्रीय सरकारों के पास भी कई दफा व्यापार को नियंत्रित करने के अधिकार नहीं होते और सामान्यतः उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों तथा समाजिक सेवाओं को नीलाम करने पर विवश होना पड़ता है। यह आम लोगों के लिये नुकसान का सबब ही नहीं जनतंत्र का सरसर अपमान है। निजी क्षेत्र ने पानी में निहित व्यापार की संभावनाओं को बहुत पहले ही भांप लिया था। पानी का व्यवसाय दुनिया भर में सबसे तेजी से बढ़ने वाले व्यवसायों में से एक है जिसका अनुमानतः 100 अरब डॉलर का बाजार है। कई देशों में कार्यशील मुट्ठीभर विशाल कार्पोरेशनों को अब यह यह अधिकार और जिमंमेवारी सोंपी जा रही है कि वे वैश्विक शुद्ध जल संकट का हमारे लिये “हल” निकालें। 90 के दशक के उत्तरार्ध में तीन गैर सरकारी संस्थाओं को बनाया गया ताकी पानी पर बड़ी कंपनियों के अजंडे की सार्वजनिक छवि को नर्मी का मुलम्मा चढ़ा कर पेश किया जा सके, ये थे ग्लोबल वॉटर पार्टनरशिप, वर्ल्ड वॉटर काउंसिल तथा वर्ल्ड कमीशन ओन वॉटर। ये तीन समूह वैश्विक जल नीति निर्धारण के केंद्रबिंदु हैं और उनका विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मॉनेटरी फंड और डबल्यू.टी.ओ से नज़दीकी संबंध है और परदे के पीछे कार्पोरेशनों को अपना असर डालने का अवसर देते हैं। इस अनियंत्रित “जल बाजार” से असीमित मुनाफे हैं। निजी क्षेत्र इस बाजार को किसी भी हालत में अपने शिकंजे से जाने नहीं देगा और पानी को “मानवाधिकार” की बजाय “आर्थिक सामग्री” की जगह बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है। अभी तक यह अभियान लगभग पूर्ण रूप से निजीकरण और सामग्रीकरण से लड़ने पर ही केन्द्रित रहा है। इस अभियान का यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, पर इस के साथ साथ पानी की चौकीदारी पर शिक्षा होनी चाहिए और दीर्घकालीन उपायों के बारे में तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी होनी चाहिए जिसे विभिन्न समुदाय प्रयोग कर सकें।

निष्कर्ष

यदि लोग और समुदाय, सही सूचना स्रोतों से सशक्‍त हो कर, अपने आस पास के जल की स्थिति सुधारने का दायित्व अपने ऊपर लें, तो बड़ी कंपनियों, विकास संस्थाओं और केन्द्रीकृत सरकारों की मदद के बिना ही बहुत कुछ हासिल हो सकता है। स्थानीय जल संसाधनों से इस निजी सम्बन्ध के रहते, हम भविष्य में भी उन की चिन्ता करने पर मजबूर होंगे और उन का अपवित्रीकरण नहीं होने देंगे। इस भावी संकट का हम केवल सरकार, निजी क्षेत्र, या गैर सरकारी संगठनों द्वारा मुकाबला नहीं कर सकते। फिर भी, अपने क्षतिग्रस्त जलाशयों पर अपना असर कम करने और उन को सुधारने के सरल और कारगर तरीके मूल स्तर पर लागू कर के और जल की सुरक्षा और संचय की संस्कृति के पुनरुदय को बढ़ावा देने से हम जल की कमी के कसाव को काफी कम कर सकते हैं।

प्यासी सुर्ख धरती को अब रवानी चाहिए, बादलो को अब मचल कर बरसना चाहिए,
समय का बोझ ढोती सिसकती नदी ताल है, इस बर्ष बरखा की इनमे रवानी चाहिए




अंजलि दीक्षित (लेखिका कानपुर शहर के एस बी एस लॉ  कालेज की कार्यवाहक प्राचार्या हैं, इनसे anjalidixitlexamicus@gmail.com पर  संपर्क कर सकते हैं. )





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