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ये जंगल तो हमारे मायका हैं

Mar 26, 2011

एक पत्र जो दरअसल गौरैया के नाम है !


मेरे घर भी आई गौरैया
 
एक लेखिका, संपादिका, एंव सामाजिक कार्यकर्ता का दुधवा लाइव के संपादक के लिए एक पत्र, जिसमें तस्किरा है, हमारे घर आँगन की उस चिड़िया का, जिससे प्रत्येक मानव (छोटा बच्चा घर में पहली बार किसी उड़ने वाले जीव से परिचित होता था तो वह गौरैया ही तो थी !) अपने जीवन में किसी परिन्दे से पहली बार रूबरू होता आया, जिसे हम गौरैया कहते हैं...
 
20 मार्च गौरैया दिवस के लिए जब आपका मेल आया तो यही सोच कर उस समय जवाब नहीं दे पाई कि कुछ लिख कर ही भेजूंगी। पिछले वर्ष आपके प्रयास के बाद मैंने भी अपने घर में गौरैया को बुलाने के लिए कुछ प्रयास किए हैं, और अब भी कर रहीं हूं।  उस प्रयास को शब्द देना चाहती थी पर फालतू के कार्यों में उलझी रही और यह जरुरी बात लिखने से रह गई। 

.... खैर देर से ही सही अपने इस प्रयास से मिली खुशी को मैं आपके साथ बांटना चाहती हूं ....मुझे अपना बचपन याद है जब हम गर्मियों की छुट्टियों में अपने गांव जाया करते थे।  पक्षी तब हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करते थे। खासकर गौरैया, कबूतर, कौआं और तोता। दादा जी ने घर की कोठी के एक तरफ ऊपरी मंजिल पर 10-12 मटके बंधवा दिए थे जहां ढेर सारे कबूतरों ने अपना स्थायी बसेरा बना लिया था। इनके गूटरगूं के हम इतने आदी थे कि जब उन्हें सैर के बाद शाम को घर लौटने में देर हो जाती थी तो हम चिंतित हो जाते थे।  सुबह आंगन में जब भी अनाज सुखाने या साफ करने के लिए डाले जाते सारे कबूतर मटकों से ऐसे उतर कर नीचे आते थे मानों वे आनाज उनके लिए ही डाले गए हों। हम बच्चे उनके पीछे भागते वे उड़कर फिर अपने मटके के ऊपर जा बैठते। यह हमारा कुछ देर का खेल ही बन जाता था। इसके साथ- साथ कौओं के झुंड के झुंड भी न जाने कहां से उड़ कर आते और कांव- कांव से सारा घर आंगन भर जाते। जिसे सुनकर मां कहती न जाने आज कौन मेहमान आने वाला है। ...और गौरैयों का तो कहना ही क्या वे तो इतनी अधिक संख्या में आंगन और घर की मुंडेरों पर आ बैठते कि गिनती करना मुश्किल होता। 

हमारे आंगन में तुलसी चौरा के पास एक बहुत ऊंचा हरसिंगार का पेड़ था, यह पेड़ उनकी चहचआहट से सुबह शाम गूंजता ही रहता। जरा सा धान या चावल का दाना कहीं बिखरा नहीं कि गौरैयों से पूरा आंगन ही नहीं भर जाता बल्कि वे बारामदे तक उतर आया करती थीं। और इस तरह हम बच्चे पूरी छुट्टियों में मां से  पका हुआ चावल या रोटी का टुकड़ा मांग कर लाते और कबूतरों, गौरैयों को अपने पास  बुलाने का जतन करते। ...तो इस तरह गुजरा है अपने घर के आंगन में इन पक्षियों के संग मेरा बचपन। 

यह खुशी की बात है कि मेरे शहर वाले घर के आस- पास भी कुछ बड़े पेड़ अब भी बचे हैं जिनमें कोयल की कूहू- कूहू और बुलबुल के गीत सुनाई पड़ते हैं। दूसरे कई तरह के छोटे- बड़े पक्षी भी शाम को अपने बसेरे की ओर लौटते हुए नजर आते हैं। यही नहीं घर के सामने सड़क  के किनारे एक पेड़, जिसे पेड़ लगाओ अभियान के तहत कुछ वर्ष पहले नगर निगम ने लगवाया था वह अब इतना बड़ा हो गया है कि वहां पक्षी अपना बसेरा बनाने लगे हैं।  बुलबुल ने इस छोटे से पेड़ पर अपना घोंसला बनाया और अंडे दिए। जब तक अंडे से बच्चा नहीं निकला और उडऩे लायक नहीं हुआ रोज उसकी मां उसे दाना खिलाने आती रही। बुलबुल के इस बच्चे को बड़ा होते मैंने देखा है। 

पक्षियों को आकाश में उड़ते देखकर खुश होना और उसके विलुप्त होते जाने पर दुख व्यक्त करना बहुत आसान होता है। पर जब उन्हें बचाने की दिशा में आपके हाथ भी आगे आते हैं तो उस आनंद को शब्दों में बयान करना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। दुधवा लाइव के कृष्ण कुमार मिश्र जी से जब पिछले वर्ष 20 मार्च गौरैया दिवस के अवसर परिचय हुआ और उनके द्वारा इस पक्षी को बचाए जाने के प्रयास के बारे में पता चला तभी से मन में छटपटाहट शुरु हो गई थी कि हम शहरों में रहने वालों को भी इसे बचाए रखने के लिए कुछ करना चाहिए। 

सो मैंने भी तभी से अपने घर की छत पर मट्टी के बर्तनों में पानी, धान और चावल के दाने रखना शुरु कर दिया था। शुरू में तो एक- दो गौरैया ही नजर आती थी पर आपको बताते हुए खुशी हो रही है कि आज साल के बीतते- बीतते मेरे घर के भीतर वाले छत पर गौरेया के चार जोड़े नियमति रुप से दाना चुगने और पानी पीने आते हैं तथा ऊपर की छत पर तो ढेरों गौरेया चहचहाने लगीं हैं। सुबह शाम उनकी चहचआहट से पूरा घर गूंजायमान रहता है। यही नहीं छत पर शाम होते ही जब कभी पंहुचों तो आसमान में और भी कई प्रकार पक्षी उड़ते हुए नजर आते हैं। उन्हें उड़ते हुए देखने का अहसास बहुत ही सुखद होता है। 

 मैं चूंकि किसान परिवार से ताल्लुक रखती हूं अत: जब फसल कट कर आती है, दीवाली के बाद तो गांव में किसान धान की पकी हुई नई बालियों से बहुत खूबसूरत झालर बनाते हैं। मैं भी पिछले वर्ष से ऐसे झालर बनवा कर लाती हूं और इन्हें छत पर ऐसी जगह लटका देती हूं जहां आ कर गौरेया इनके दाने चुग सके । अब तो इन झालरों में सिर्फ बालियां ही बची है गौरैयों ने सारे दाने चुग लिए हैं। इसलिए अब रोज उनके लिए चावल के दाने बिखेर देती हूं। उन्हें दूर से चुगते देखती हूं और मन ही मन खुश होती हूं कि देखो मेरे घर भी गौरैया आने लगी। इसी संदर्भ में पिछले वर्ष बहुत से शहरों में विभिन्न संस्थाओं और मीडिया ने भी गौरैया बचाओ अभियान के तहत जागरुकता अभियान जोर -शोर से चलाया था। यह सही है कि किसी संस्था या मीडिया द्वारा अभियान चलाने से लोगों में जागरुकता आती है पर अक्सर यह देखा गया है कि कुछ दिनों तक तो लोग उस बात को याद रखते हैं लेकिन जैसे ही अभियान की गति मंद पड़ती है या बंद कर दी जाती है तो लोग उस बात को भूलने लगते हैं। 

मुझे याद है पिछले वर्ष मेरे प्रदेश में भी गौरैया को बचाने के लिए कुछ संस्थाओं और समाचार पत्रों ने जागरुकता का बिगुल फूंका था और उसका असर भी दिखाई देने लगा था। तब समाचार पत्रों में लोगों द्वारा गौरैया के लिए अपने घरों के आस- पास घोंसला बनाने तथा पानी और दाना रखे जाने के समाचार बड़ी संख्या में प्रकाशित हो रहे थे। कितना अच्छा होता समाचार पत्र ऐसे अभियानों के लिए अपने अखबार का एक कोना प्रतिदिन सुरक्षित रख देते ताकि पशु- पक्षियों के संरक्षण के लिए जागरुकता का यह अभियान साल- दर- साल चलता ही रहता... और हमारे घर- आंगन में गौरैया सालो- साल यूं ही फुदकती रहती। 



डॉ. रत्ना वर्मा (लेखिका उदन्ती पत्रिका की संपादिका हैं, जर्नलिज्म में दशकों का कार्यानुभव, कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में पत्रकारिता, मध्य भारत के एक बड़े राजनैतिक परिवार से  ताल्लुक, आन्दोलनी विरासत, भारत के नव-गठित प्रदेश छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में निवास, इनसे udanti.com@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। )

1 comment:

  1. बधाई हो डाक्टर साहिबा ! गौरैया आपके भी घर में आने लगी. अब आपके घर की बहुओं को बच्चों को दूध पिलाने में बड़ी पारंपरिक सुविधा हो जायेगी यह कहते हुए कि " आ चिर्रा ! आजा बेटू का दूध पी ले ये नहीं पी रहा " ....फिर बेटू से कहेंगी -..." ले ज़ल्दी पीले नहीं तो चिर्रा सारा दूध पी जायेगी" और आपके बेटू की आँखें चिर्रा को खोजने में व्यस्त हो जायेंगी.

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