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Jan 6, 2011

कवर्धा में बाघ की हत्या

क्या सिर्फ एक बाघ मरा है... 

©dudhwalive.com
छत्तीसगढ़ में कवर्धा से 80 किलोमीटर दूर पंडरिया के ग्राम अमनिया में जहां बाघ को मौत के घाट उतारा गया है वह इलाका अचानकमार व कान्हा नेशनल पार्क के गलियारे का जोड़ता है। पिछले दिनों जब वन्य प्राणी बोर्ड की बैठक हुई थी तब इस क्षेत्र में मौजूद एक खदान से खनन किए जाने के प्रस्ताव पर भी विचार-विमर्श किया गया था।  हालांकि बोर्ड के दो सदस्यों ने इस प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया था।  सदस्यों के विरोध के बाद भी यहां खदान से खनन किए जाने की कार्रवाई को लेकर फाइल आगे बढ़ रही थी लेकिन बाघ की मौत ने माइनिंग लीज के प्रस्ताव पर फिलहाल  मिट्टी डाल दी है।  इधर इलाके में बाघों की मौजूदगी को नजरअंदाज करने वाले अफसरों की भी घिग्गी बंध गई है। 

गौरतलब है कि 19 दिसंबर 2010 को पंडरिया के अमनिया गांव के पास एक बाघ का शव पाया गया था। प्रारंभिक जांच-पड़ताल के बाद विभाग के अफसरों ने इस शव को लकड़बघ्घे का शव बताया था लेकिन जब रायपुर के वरिष्ठ अफसर मौके का मुआयना पहुंचे तब इस बात की पुष्टि हुई कि शव किसी बाघ का ही है। इस शव के मिलने के बाद विभाग के अफसरों की सिट्टी-पिट्टी गुम है। पिछले दिनों जब राजधानी में वन्य प्राणी बोर्ड की बैठक हुई थी तब वन अफसरों ने बोर्ड के सदस्यों के सामने रेंगाखार इलाके में मौजूद एक खदान के खनन का प्रस्ताव रखा था। कांग्रेस विधायक टीएस सिंहदेव एवं बसपा विधायक सौरभ सिंह जो बोर्ड के सदस्य हैं ने इस प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया था। सदस्यों का कहना था कि रेंगाखार इलाके में बाघों की मौजूदगी देखी गई है और यह इलाका अचानकमार अभ्यारण्य व कान्हा नेशनल पार्क के गलियारे को जोड़ता है। फलस्वरूप यहां मौजूद खदान के खनन को मंजूरी देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा। बोर्ड के सदस्यों के द्वारा किए गए विरोध के बाद भी खनन संबंधी मामले में एक फाइल मंत्रालय के गलियारों में दौड़ लगा रही थी। लेकिन बाघ की मौत के बाद फिलहाल मामला ठंडे बस्ते में जाता दिख रहा है। इधर इस मामले में माइनिंग लीज की तरफदारी करने वाले अफसरों की सिट्टी-पिट्टी भी गुम हो गई है। खबर है कि इस मामले में अफसर अपनी चमड़ी बचाने में लगे हुए है। हालांकि लापरवाहीपूर्वक काम करने के चलते कवर्धा के डीएफओ एके श्रीवास्तव ने नेउर कक्ष क्रमांक 475 के वन कर्मी धनुष सिंह ठाकुर और बीट गार्ड बीके गंजीर को निलंबित कर दिया है। लेकिन इस निलंबन के बाद भी कुछ सुगबुगाते हुए सवाल खड़े हो गए हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि क्या बाघ की मौत के लिए केवल ग्रामीण और निचले स्तर पर कार्यरत वन अमला ही जिम्मेदार है?

मुआवजे की लचर प्रक्रिया
वन विभाग के ही जिम्मेदार अफसरों का यह मानना है कि मुआवजे की लचर प्रक्रिया के चलते भी ग्रामीण जानवरों को मौत के घाट उतारते हैं। जिस किसी भी ग्रामीण का मवेशी मारा जाता है यदि उसे तत्काल ही मुआवजा दे दिया जाए तो वह हिंसक जानवर को ठिकाने लगाने के उपायों को अमल में नहीं लाता। अन्यथा ग्रामीण यह मानता है कि जब हिंसक जानवर उसके एक मवेशी को मार चुका है तो फिर वह उसके दूसरे जानवरों पर भी हमला करेगा ही। अन्य मवेशियों को बचाने के लिए ही शिकार हो चुके जानवर पर जहर घोलने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। कवर्धा के अमनिया ग्राम में घटित हुई घटना में भी यही प्रक्रिया अपनाई गई थी। जिस बाघ की मौत हुई है उसने 25 से 30 नवंबर के बीच दो बैलों और एक गाय को अपना शिकार बनाया था। ग्रामीणों ने अन्य जानवरों के बचाव के लिए बाघ को ठिकाने लगाने का काम किया।

टाइगर अभ्यारण्यों में पद रिक्त
पिछले दिनों जब विधानसभा का शीतकालीन सत्र आयोजित किया गया था तब बसपा विधायक सौरभ सिंह ने वन मंत्री विक्रम उसेंडी से टाइगर अभ्यारण्यों में रिक्त पदों के संबंध में जानकारी चाही थी। श्री सिंह के लिखित प्रश्न के उत्तर में वनमंत्री ने बताया था कि इंद्रावती, उदंती-सीतानदी और अचानकमार अभ्यारण्यों के 420 पदों में से 219 पद पूरी तरह से खाली है। विभाग के अफसर भी दबी जुबान से यह मानते हैं कि मैदानी स्तर पर अमले की कमी के चलते जंगली-जानवरों की सुरक्षा ठीक ढंग से नहीं हो पा रही है। कवर्धा में जिस बाघ की मौत हुई है उसकी भनक भी वहां मौजूद बीट गार्ड को काफी देर से हुई थी। जब शव से दुर्गंध उठने लगी तब जाकर मामले का खुलासा हुआ।

एक ही जगह पर जमे अफसर
अब से कुछ अरसा पहले गोदाबर्मन के एक प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि जो वन अफसर जिस काम के लिए पदस्थ किया जाएगा उसे वही काम करना होगा, लेकिन छत्तीसगढ़ में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की सीधे-सीधे अवहेलना हो रही है। नियमानुसार प्रतिनियुक्ति में नियुक्त किये गये किसी भी अफसर की पदस्थापना तीन सालों के भीतर अन्यंत्र हो जानी चाहिए लेकिन छत्तीसगढ़ में इस नियम का पालन नहीं किया जा रहा है। विभाग में प्रदीप कुमार पंत, आरके सिंग, प्रकाशचंद्र पांडे सहित अनेक अफसर ऐसे हैं जो वन विभाग के बजाए अन्य जगहों पर कार्य कर रहे हैं। वन विभाग का ही धड़ा ऐसे अफसरों की प्रतिनियुक्ति को लेकर खासा नाराज है।   धड़े के जिम्मेदार लोग यह मानते है कि कतिपय अफसर अपनी पदस्थापना अन्य मलाईदार विभागों में इसलिए भी चाहते है क्योंकि वन विभाग की रौनक घट गई है। दूरस्थ क्षेत्रों में पदस्थ अफसर यह मानते है कि वन सेवा का काम काफी दबावों के बीच होता है। ऐसे में यदि कोई प्रतिनियुक्ति पर चला जाता है तो वह सीधे-सीधे सत्ता के करीब पहुंचकर मुख्यधारा में शामिल हो जाता है। अफसर मानते हैं कि बड़े पैमाने पर की गई प्रतिनियुक्ति के चलते ही जंगल में आग लगने, जानवरों के मारे जाने और अवैध कटाई के प्रकरणों में इजाफा हो रहा है। वर्ष 2008 से लेकर वर्ष 2010 तक अवैध शिकार के लगभग 45 प्रकरण सामने आ चुके हैं। दूरस्थ अंचलों में पदस्थ अफसरों का एक बड़ा वर्ग जंगलों की कटाई और अवैध शिकार के लिए बेगारी को भी एक कारण मानता है। नाम न छापने की शर्त पर कुछ अफसरों ने बताया कि जिलों में पदस्थ वनमण्डाधिकारियों का अधिकांश समय महात्मा गांधी राष्टीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत संचालित किए जाने वाले कामों में ही बरबाद हो रहा है। अफसरों का अधिकांश समय आडिट रिपोर्ट बनाने में ही जाया हो रहा है। अफसरों का कहना है कि  जब तक वे बेगारी करते रहेंगे तब तक वनों और वन्य प्राणियों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही रहेगी।
.भोजन की कमी 
वन्य प्राणी बोर्ड से जुड़े एक सदस्य का मानना है कि छत्तीसगढ़ के जंगलों में ‘सिंग’ और खुरवाले जानवरों की कमी हो गई है। नील गाय अब सरगुजा के आसपास ही नजर आती है तो चीतल व सांभर के दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। बारहसिंघा तो प्रदेश में है ही नहीं। जानवरों की कमी के कारण ही बाघ पालतू जानवरों को उठाकर जंगल ले आता है। सामान्य तौर पर बाघ जिस जानवर को अपना भोजन बनाता है उसे वह दो-तीन दिनों तक बड़े चाव से खाता है।  अब से कुछ अरसा पूर्व जब बाघ ग्रामीणों के मवेशियों को उठाकर ले जाया करता था तब शिकारी उसका शिकार किया करते थे लेकिन अब ग्रामीण ही उसे ठिकाने लगा देते हैं। वन्य प्राणी बोर्ड के एक सदस्य टीएस सिंहदेव बाघों को बचाने के लिए की जा रही कवायद के बीच छत्तीसगढ़ में एक बाघ की मौत को काफी दुर्भाग्यपूर्ण मानते हैं। उनका मानना है कि जब तक वाइल्ड लाइफ का सेटअप पूरी तरह से अलग नहीं होगा तब तक अवैध शिकार के मामलों में बढ़ोत्तरी होती रहेगी। कुछ ऐसे ही विचार सौरभ सिंह के भी है। श्री सिंह का कहना है कि जब तक रिक्त पदों पर भर्ती नहीं की जाएगी तब तक अवैध शिकार के प्रकरण उजागर होते रहेंगे। छत्तीसगढ़ में वैसे भी बाघों की संख्या काफी कम है। यदि विभाग के लोग मुस्तैद होते तो यह घटना टाली जा सकती थी।

मुस्तैद है वन अमला
मैं यह नहीं मानता कि वन अमला मुस्तैद नहीं है। जहां तक अफसरों की प्रतिनियुक्ति का सवाल है तो मैं यह बताना चाहूंगा कि  वन सेवा से जुड़े अफसरों के लिए भी प्रतिनियुक्ति का नियम बना हुआ है। कुछ अफसर राज्य में सेवा देते हैं तो कुछेक की नियुक्ति दीगर राज्यों में होती है। हां यह सही है कि जंगलों  की कटाई से जानवर प्रभावित होते हैं। जब जानवरों को उनके अनुकूल वातावरण नहीं मिलता तो वे गांवों और कस्बों की ओर दौड़ लगाते हैं।
रामप्रकाश
पीसीसीएफ वाइल्ड लाइफ  

कुछ तथ्य ऐसे भी
0 भारतीय वन्य प्राणी संस्था देहरादून द्वारा वर्ष 2008 में किए गए सर्वे के मुताबिक देश में कुल 1411 बाघ शेष हैं जबकि छत्तीसगढ़ में बाघों की कुल संख्या 26 बताई गई है।
0 नक्सलवाद के चलते प्रदेश के इंद्रावती अभ्यारण में शेरों की गिनती का काम नहीं हो पाया है।
0 1972 के वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत बाघ को अनुसूची एक में शामिल किया गया है। पहली बार बाघ का शिकार या उसके अंगों की तस्करी करने पर तीन से सात वर्ष तक जेल और 50 हजार से लेकर दो लाख तक जुर्माने का प्रावधान तय किया गया है। दूसरी बार शिकार करने में सजा का अधिकतम समय सात वर्ष और जुर्माना पांच से पचास लाख निर्धारित है।
0 बिलासपुर जिले के अचानकमार अभ्यारण्य में शेरों की गिनती के लिए कैमरा लगाए जाने की तैयारी की गई थी लेकिन यह काम फाइलों में ही कहीं खोकर रह गया है।


राजकुमार सोनी(लेखक छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित अखबार हरिभूमि में वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेखन की तमाम विधाओं में दखल, छत्तीसगढ प्रदेश की राजधानी में निवास, इनसे soni.rajkumar123@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं।

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