वन्य जीवन एवं पर्यावरण

International Journal of Environment & Agriculture ISSN 2395 5791

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Feb 18, 2011

टूटते पहाड़ व ग्रेनाइट का खनन ही बुन्देलखण्ड की त्रासदी


ग्रेनाइट खनन से बढ़ता प्रदूषण 

पर्यावरण प्रदूषण और बीमार होते लोग 
1.    30 लाख 50 हजार पत्थर रोजाना पहाड़ों से निकाला जाता है।
2.    30 से 40 टन विस्फोटक का प्रतिदिन उपयोग।
3.    इस उद्योग में लगी 1500 ड्रिलिंग मशीनें।
4.    500 जे0सी0बी0 मशीनें कर रही खुदाई।
5.    20 हजार ट्रक एवं डम्फर।
6.    2000 बड़े जनरेटर।
7.    50 क्रेन मशीन पत्थरों को उठाने में मशगूल।
8.    15 हजार ट्रक व ट्रैक्टर भाड़ा और ओवरलोडिंग हफ्ता वसूली।
9.    14 हजार दो पहिया- चार पहिया वाहनों की दौड़।
10.    6 करोड़ तिरासी लाख, पांच सौ ली0 डीजल की खपत।
11.    10 हेक्टेयर जमीन कृषि योग्य प्रतिदिन बंजर।
12.    सैकड़ों टी0वी0 के मरीज होते हैं तैयार।

बुन्देलखण्ड का पठार प्रीकेम्बियन युग का है। पत्थर ज्वालामुखी पर्तदार और रवेदार चट्टानों से बना है। इसमें नीस और ग्रेनाइट की अधिकता पायी जाती है। इस पठार की समु्रद तल से ऊंचाई 150 मीटर उत्तर में और दक्षिण में 400 मीटर है। छोटी पहाड़ियों में भी इसका क्षेत्र है, इसका ढाल दक्षिण से उत्तर और उत्तर पूर्व की और है। बुन्देलखण्ड का पठार मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया, ग्वालियर तथा शिवपुरी जिलो में विस्तृत है। सिद्धबाबा पहाड़ी (1722 मीटर) इस प्रदेश की सबसे ऊंची पर्वत छोटी है। बुन्देलखण्ड की भौगोलिक बनावट के अनुरूप गुलाबी, लाल और भूरे रंग के ग्रेनाइट के बड़ाबीज वाला किस्मों के लिये विन्ध्य क्षेत्र के जनपद झांसी, ललितपुर, महोबा, चित्रकूट- बांदा, दतिया, पन्ना और सागर जिले प्रमुखतः हैं। भारी ब्लाकों व काले ग्रेनाइट सागर और पन्ना के कुछ हिस्सों में पाये जाते हैं इसकी एक किस्म को झांसी रेड कहा जाता है। छतरपुर में खनन के अन्तर्गत पाये जाने वाले पत्थर को फार्च्यून लाल बुलाया जाता है। सफेद, चमड़ा, क्रीम, लाल बलुआ पत्थर अलग-अलग पहाड़ियों की परतों में मिलते हैं। न्यूनतम परत बलुवा पत्थर एक उत्कृष्ट निर्माण सामग्री के लिये आसानी से तराषा जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़े भंडार, हल्के रंग का पत्थर झांसी, ललितपुर, महोबा, टीकमगढ़ तथा छतरपुर के कुछ हिस्सों मंे मिलता है। इस सामग्री भण्डार का उपयोग पूरे देष में 80 प्रतिशत सजावटी समान के लिये होता है। ललितपुर में पाया जाना वाला कम ग्रेड व लौह अयस्क (राक फास्फेट) के रूप से विख्यात है।

अप्राकृतिक खननः- हाल ही के अध्ययन व सर्वेक्षण से जो तथ्य प्रकट हुये हैं वे चौकने वाले ही नहीं वरन् यह भी सिद्ध करते हैं कि भविष्य ये बुन्देलखण्ड की त्रासदी में वे अति सहयोगी होंगे। जहां पहाड़ों के खनन में  मकानों की अनदेखी की जा रही है। वहीं खनन माफिया साढ़े 37 लाख घन मी0 पत्थर रोजाना पहाड़ों से निकालते हैं। इसके लिये वह एक इंच होल में विस्फोटक के बजाय छः इंच बड़े होल में बारूद भरकर विस्फोट करते हैं। जब यह विस्फोट होते हैं तो आस-पास 15-20 किमी की परिधि में बसने वाले वन क्षेत्रों के वन्य जीव इन धमाके की दहषत से भागने लगते हैं व कुछ की श्रवण क्षमता पूरी तरह नष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त विस्फोट से स्थानीय जमीनों में जो दरारें पड़ती हैं उससे ऊपरी सतह का पानी नीचे चला जाता है और भूगर्भ जल बाधित होता है। इस सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड ग्रेनाइट करोबार जो कि यहां कुटीर उद्योग के नाम से चल रहा है में 1500 ड्रिलिंग मशीनें, पांच सैकड़ा जे0सी0बी0, 20 हजार डंफर, 2000 बड़े जनरेटर, 50 क्रेन मशीन और हजारों चार पहिया ट्रैक्टर प्रतिदिन 6 करोड़, 83 लाख, पांच सौ ली0 डीजल की खपत करके और ओवरलोडिंग करते हैं। इन विस्फोटों से रोजाना 30-40 टन बारूद का धुआं यहां के वायुमंडल में घुलकर बड़ी मात्रा में सड़क राहगीरों व खदानों के मजदूरों को हृदय रक्तचाप, टी0वी0, श्वास-दमा का रोगी बना देता हैं। इसके साथ-साथ 22 क्रेसर  मषीनों के प्रदूषण से प्रतिदिन औसतन 2 लोग की आकस्मिक मृत्यु, 2 से तीन लोग अपाहिज व 6 व्यक्ति टी0वी0 के षिकार होते हैं। 


गौरतलब है कि इस उद्योग से प्रतिदिन 10 हेक्टेयर भूमि (उपजाऊ) बंजर होती हैं 29 क्रेसर मषीनों को उ0प्र0 प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा अनापति प्रमाण पत्र जारी किया गया है लेकिन इन खनन मालिकों की खदानों में पत्थर तोड़ने के समय चलाया जाने वाला फव्वारा कभी नहीं चलता जो कि डस्ट को चारों तरफ फैलने से रोकने के लिये होता है ताकि प्रदूषण कम हो। अवैध रूप से लाखों रूपयों की विद्युत चोरी इनके द्वारा प्रतिदिन की जाती है इसके बाद भी यह उद्योग बहुत तेजी से बुन्देलखण्ड में पैर पसार रहा है क्योंकि सर्वाधिक राजस्व इस उद्योेग से मिलता है। विन्ध्याचल पवर्त माला और कबरई (महोबा), मोचीपुरा, पचपहरा का ग्रेनाइट सर्वाधिक रूप से खनिज कीमतों में सर्वोत्तम माना जाता है प्राकृतिक संसाधनों के इस व्यापार से निकट समय में ही यदि निजात नहीं मिलती है तो बुन्देलखण्ड की त्रासदी में यह उद्योग बहुत बड़ी भूमिका के साथ दर्ज होने वाला काला अध्याय साबित होगा।


आशीष दीक्षित "सागर" (लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है, वन एंव पर्यावरण के संबध में बुन्देलखण्ड अंचल में सक्रिय, प्रवास संस्था के संस्थापक के तौर पर, मानव संसाधनों व महिलाओं की हिमायत, पर्यावरण व जैव-विविधता के संवर्धन व सरंक्षण में सक्रिय, चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय से एम०एस० डब्ल्यु० करने के उपरान्त भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय के उपक्रम कपाट में दो वर्षों का कार्यानुभव, उत्तर प्रदेश के बांदा जनपद में निवास, इनसे ashishdixit01@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं) 

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